संभाजी महाराज का इतिहास (Biography Of Shambhaji)
संभाजी महाराज का इतिहास और जीवनी (Biography Of Shambhaji)
छत्रपति शिवाजी महाराज अपने बड़े भाई संभाजी महाराज शाहजी राजे भोसले से बेहद प्रेम करते थे।
लेकिन भाई संभाजी राजे भोसले बचपन से ही पिता के साथ रहते थे और छत्रपति शिवाजी महाराज माता जीजाबाई के साथ रहते थे।
इसी वजह से दोनों भाई अलग-अलग थे। शिवाजी को अपने बड़े भाई से इतना प्रेम था कि उन्होंने अपने पुत्र का नाम भी संभाजी रखा।
संभाजी शिवाजी महाराज छत्रपति शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी थे।
नाम- छत्रपति संभाजी राजे भोसले या शंभूराजे।
पिता का नाम- छत्रपति शिवाजी महाराज।
माता का नाम- सई बाई।
दादा का नाम- शाहजी राजे भोसले।
दादी का नाम- जीजाबाई।
पत्नी- येसुबाई।
बच्चे- साहू और भवानी बाई।
जन्म दिनांक- 14 मई 1657 पुरंदर फोर्ट, घेरापुरंदर
मृत्यु- 11 मार्च 1689 तुलापुर।
छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ-साथ यह मराठा साम्राज्य के भी उत्तराधिकारी थे। छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के पश्चात बीजापुर और गोलकुंडा दोनों ऐसे राज्य थे जिन पर मुगल शासक औरंगजेब का अधिकार था।
इतना ही नहीं इन क्षेत्रों में औरंगजेब की क्रूरता से आमजन तक परेशान थे। संभाजी शिवाजी राजे ने इन दोनों क्षेत्रों को मुगलों से मुक्त कराने का निर्णय लिया।
छत्रपति संभाजी से मुगल शासक औरंगजेब इतना परेशान हो गया था कि उसने कसम खाई कि जब तक संभाजी पकडे नहीं जाएंगे वह अपने किमोंश (मुकुट) को सिर पर धारण नहीं करेगा।
इन्होंने अपने शासनकाल में लगभग 120 लड़ाइयां लड़ी थी लेकिन सबसे बड़ी बात यह थी कि एक भी लड़ाई में यह हताहत नहीं हुए।
छत्रपति शिवाजी महाराज की आगरा यात्रा में यह भी शामिल थे उस समय इनकी आयु मात्र 9 वर्ष थी। इस समय शिवाजी महाराज बंदी ग्रह से मुक्त हुए थे और पुनः महाराष्ट्र लौटे थे।
सन 1668 ईस्वी में शिवाजी और इनके साथी जब महाराष्ट्र लौट आए, तब इनके बड़े पुत्र संभाजी को मुगल सम्राट द्वारा राजा के पद पर और पंचहजारी पद से विभूषित किया गया।
यह मुगलों और छत्रपति शिवाजी महाराज के बीच हुई संधि का परिणाम था।
इतना ही नहीं संभाजी बहुत ही विद्वान और संस्कृत भाषा के अच्छे जानकार थे। इन्होंने मात्र 14 वर्ष की आयु में संस्कृत भाषा में 3 ग्रंथ लिखे थे।
इन ग्रंथों के नाम बुद्धाभूषणम, नखशिख और नायिकाभेद तथा सातशातक हैं।
अपने राज्याभिषेक के बाद छत्रपति शिवाजी महाराज ने अष्टप्रधान नामक मंत्रिमंडल का गठन किया था। इस मंत्रिमंडल के कुछ मंत्रियों और सेनानायको की गलत नीतियों से युवराज संभाजी बहुत हताहत हुए और उन्हें नुकसान भी हुआ।
पराक्रमी और सूर्यवान होने के बावजूद इन्हें प्रमुख लड़ाई उसे दूर रखा गय।
छत्रपति शिवाजी महाराज की आज्ञा अनुसार इन्हें मुगल सेना में शामिल होना पड़ा। शिवाजी की यह चाल थी कि अपने पुत्र को उनकी सेना में शामिल करके कैसे भी करके उनका भेद लेना है ताकि मराठा साम्राज्य को और आगे बढ़ाया जा सके।
इसके साथ ही मुगल शासन का अंत भी किया जा सके। ना चाहते हुए भी अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए संभाजी जी ने मुगल सेना में नौकरी ज्वाइन कर ली। यह लगातार मुगलों को गुमराह करते रहे।
जब औरंगजेब को इस बात का संदेह हुआ कि संभाजी हमें और हमारी सेना को गुमराह कर रहे हैं तो उन्होंने संभाजी के साथ साथ रानी दुर्गा बाई और बहन गोदावरी को भी बंदी बना लिया।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने आक्रमण करके संभाजी को मुगलों से मुक्त करवा दिया लेकिन रानी दुर्गा बाई और गोदावरी को मुक्त नहीं करा सके।
3 अप्रैल 1980, मराठा साम्राज्य के लिए बहुत बुरा दिन था इस दिन छत्रपति शिवाजी महाराज का स्वर्गवास हो गया। अष्टप्रधान मंत्रिमंडल में शामिल कुछ लोगों ने षडयंत्र पूर्वक संभाजी के छोटे भाई “राजाराम” को राजा घोषित करने की कोशिश की और उन्हें राजगद्दी पर बिठाना चाहा।
ऐसे समय में सेनापति मोहिते बहुत ही चतुराई और रणनीति के साथ इन सभी को परास्त करते हुए 10 जनवरी 1681 को संभाजी को राज गद्दी पर बिठाया।
औरंगजेब का पुत्र अकबर संभाजी से जाकर मिला और उनका आश्रय लिया। अष्टप्रधान में शामिल कुछ मंत्री और सामंत ने मिलकर संभाजी को राजनीति से हटाने तथा राजाराम को राजगद्दी पर बिठाने की साजिश रची।
इस साजिश के तहत उन्होंने अकबर को पत्र लिखा कि आप भी हमारे साथ शामिल हो जाइए और हम सब मिलकर संभाजी को राजगद्दी से हटा देंगे।
लेकिन क्योंकि अकबर को संभाजी ने आश्रय दिया था इस वजह से उन्होंने इस पत्र को संभाजी के सामने पेश किया। संभाजी बहुत क्रोधित हुए और सभी सामंतों को मृत्युदंड दिया।
इन सामंतों में बालाजी आवजी नामक एक संत भी थे जिन्हें मृत्युदंड दिया गया था। मृत्यु के पश्चात इनका एक पत्र संभाजी को मिला जिसने इन्होंने संभाजी से माफी मांगी थी।
और यही वजह थी कि बाद में चलकर संभाजी ने इनकी समाधि बनाई। उन्हें लगातार लगभग 9 वर्षों तक मुगल सेना से सामना करना पड़ा था।
हिंदू और मराठा स्वराज्य के दूसरे छत्रपति थे शंभाजी
शंभाजी महाराज स्वराज्य के दूसरे छत्रपति बनें। 14 मई 1657 को पुरन्दरगढ़ पर इनका जन्म हुआ था।
जब इनकी आयु मात्र 2 वर्ष थी तब इनकी माता सई बाई का निधन हो गया था। शंभाजी महाराज को माता का प्यार नहीं मिला।
छत्रपति शिवाजी महाराज की माता जीजाबाई ने इनका लालन पालन किया। छत्रपति शिवाजी महाराज की भांति इनमें भी संस्कार कूट कूट कर भरे हुए थे। माता जीजाबाई ने इनको वीर और शौर्यवान बनाया।
हिंदुओं की धर्म परिवर्तन के बाद घर वापसी या शुद्धीकरण
यह हिंदू समाज के लिए एक ऐसा विकट समय था जब मुगलों द्वारा हिंदुओं को जबरन मुस्लमान बनाया जा रहा था।
इसी वक्त संभाजी ने यह ठाना की कैसे भी करके जो हिंदू मुसलमान बन गए हैं उन्हें पुनः हिंदू समाज में जगह दी जाए और उनका शुद्धिकरण किया जाए।
इस कार्य में सबसे बड़ी बाधा हिंदू ही थे क्योंकि जो व्यक्ति एक बार मुसलमान बन गए उन्हें पुनः हिंदू समाज में लेने पर पूरे हिंदू समाज द्वारा पुरजोर उनका विरोध किया जाता था।
हालांकि इन सब बातों को नजरअंदाज करते हुए संभाजी ने यह काम बहुत ही चतुर था और चालाकी के साथ किया। संभाजी के साथ “कवि कलश” नाम के साहित्यकार भी शामिल थे।
हरसुल के गंगाधर कुलकर्णी नामक ब्राह्मण को इन्होंने शुद्धिकरण करके मुसलमान से पुनः हिंदू बनाया था। और यही वजह थी कि लाखों की तादाद में मुसलमान बने हिंदू पुनः अपने धर्म में लौट आए।
धर्म परिवर्तन के लिए बनाई गई नीति
धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए इन्होंने एक बहुत ही कठोर नीति बनाई थी। इस नीति के अनुसार सन 1684 ईस्वी में अंग्रेजों और मराठों के बीच एक संधि हुई, जिसके तहत छत्रपति संभाजी ने शर्त रखी कि उनके राज्य में अंग्रेज किसी भी हिंदू समुदाय के व्यक्ति का धर्म परिवर्तन नहीं करवा सकेंगे।
इसी नीति के अनुसार छत्रपति संभाजी ने एक बड़े स्तर पर हिंदुओं के धर्मांतरण पर रोक लगाई थी। इनको कट्टर हिंदू समर्थक भी माना जाता है।
पुर्तगालियों को मार भगाया
अपने समय में छत्रपति शिवाजी महाराज ने पुर्तगालियों को जड़ से उखाड़ फेंकने का दृढ़ निश्चय किया था। शुरुआत से ही छत्रपति शिवाजी महाराज पुर्तगाली सेना को उखाड़कर फेंकना चाहते थे।
मराठा साम्राज्य की सीमा और गोवा की सीमा पर एक महत्वपूर्ण फोंडा का किला था। यहीं पर एक “मर्दनगढ़” नामक दूवा था। मर्दनगढ़ पर पुर्तगालियों द्वारा लगातार तोपों से हमले हो रहे थे ताकि इसकी दीवारों को कमजोर किया जा सके और “फोंडा दुर्ग” के अंदर प्रवेश किया जा सके।
पुर्तगाली सेना ने इस किले का घेराव करने का प्लान बनाया और पूरी साजिश के तहत किले की घेराबंदी कर दी। संभाजी महाराज के ऊपर नजर बनाए हुए थे।
इस वक्त संभाजी महाराज रायपुर में थे और उन्होंने तुरंत वहां से निकलकर पुर्तगालियों को खदेड़ने का प्लान बनाया और दृढ़ निश्चय किया कि किसी भी परिस्थिति में पुर्तगालियों को यहां से निकालना है।
800 घुड़ सवारों के साथ 600 सैनिकों को भी भेजा। संभाजी महाराज की योजना और रणनीति को देखकर पुर्तगाली दंग रह गए।
इस समय पुर्तगाली सेना का नेतृत्व “वाइस रॉय“ नामक व्यक्ति कर रहा था। वॉइस रॉय को जैसे ही इस बात की भनक लगी कि खुद संभाजी महाराज इस युद्ध में अपनी सेना का नेतृत्व करने के लिए जा रहे हैं तो उन्होंने दांतो तले उंगली दबा ली।
छत्रपति संभाजी को इस युद्ध में शामिल होते देख मराठा सेना में जोश और जुनून आ गया। साथ ही कुछ सामंत जो नाराज चल रहे थे वह भी शामिल हो गए और पुर्तगालियों को जड़ से उखाड़ फेंकने के दृढ़ निश्चय को और मजबूती प्रदान की।
हालांकि छत्रपति संभाजी के आने की सूचना मात्र से ही पुर्तगाली पीछे हट गए थे और उन्हें खुद पर संदेह हो गया था कि यह युद्ध जीतना उनके लिए कतई आसान नहीं होगा।
किल्लेदार “येसाजी कंक” जोकि छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना में एक बहुत बड़े योद्धा थे, वृद्धावस्था होने के बाद भी इस युद्ध में शामिल हुए। पुर्तगालियों को परास्त करने के लिए पूरी रणनीति इन्होंने ही तैयार की थी।
येसाजी कंक के पुत्र “कृष्णजी” उनके साथ है। यह दोनों बाप और बेटे एक साथ दुर्ग से निकले और अपनी छोटी सी टुकड़ी के साथ पुर्तगालियों पर धावा बोल दिया। पुर्तगाली सेना को इस तरह से आक्रमण की जरा सी भी भनक नहीं पड़ी।
बिजली की तरह टूट पड़े कृष्णजी और उनके पिता येसाजी कंक इस युद्ध में बुरी तरह घायल हो गए। युद्ध के दूसरे ही दिन पुर्तगाली सेना ने अपने पैर पीछे खींच लिए और दुर्ग के आसपास से हटना शुरू कर दिया।
गोवा के तत्कालीन गवर्नर द रूद्रीगु ने 24 जनवरी 1688 को पुर्तगाल के राजा को एक पत्र लिखा और इस पत्र में उन्होंने लिखा कि छत्रपति संभाजी से चल रहा है अभी तक समाप्त नहीं हुआ है।
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जब अपने हुए पराए
“जुल्फीकार खान” रायगढ़ पर आक्रमण करने के लिए सेना के साथ तैयार था। जब यह सूचना छत्रपति संभाजी को लगी तो वह भी सतारा वाई- महाड रास्ते से रायगढ़ की तरफ निकले। लेकिन तब तक “मुकर्रब खान” अपनी सेना के साथ कोल्हापुर तक पहुंच गए थे।
जब यह जानकारी छत्रपति संभाजी को लगी तो उन्होंने अपना रास्ता बदलने करने का निश्चय किया। इस बार संभाजी ने “संगमेश्वर मार्ग के चिपलन – खेड़” मार्ग से रायगढ़ जाने का प्लान बनाया। लेकिन उनके इस प्लान की खबर पूरे क्षेत्र में आग की तरह फैल गई।
छत्रपति संभाजी के बहनोई “गणोजी शिर्के” ने संभाजी के साथ गद्दारी कर दी। और आसपास के क्षेत्र में दंगा कर दिया जिसके चलते सभी लोग सहायता के लिए अपने परिवार समेत छत्रपति संभाजी की शरण में चले गए।
संगमेश्वर के लोगों के लिए एक ही रास्ता था अगर छत्रपति संभाजी उनकी सहायता कर दे तो ठीक है बाकी उन्हें अपनी जान का खतरा सता रहा था।
लेकिन जब संगमेश्वर क्षेत्र के लोग संभाजी के पास पहुंचे तो उन्होंने उनकी सहायता का आश्वासन दिया। इसी आश्वासन को पूरा करने के लिए उन्हें वहां 5 दिन रुकना पड़ा।
इसी समय संभाजी को खबर मिली कि मुकर्रब खान कोल्हापुर से निकलकर संगमेश्वर की तरफ बढ़ रहा है। संगमेश्वर और कोल्हापुर की दूरी लगभग 90 मील की जिसे तय करने में लगभग 10 दिन का समय लगता है मगर गणोजी शिर्के ने गुप्त मार्ग का रास्ता बता दिया।
हालांकि यह मार्ग बहुत ही कठिन था फिर भी चार-पांच दिन में आसानी के साथ पहुंचा जा सकता था।
1 फरवरी 1689 की बात है अपनी विशाल सेना जो कि लगभग 3000 की सेना के साथ मुकर्रब खान ने छत्रपति संभाजी को चारों तरफ से घेर लिया।
सरदेसाई के सानिध्य में उनके घर छत्रपति संभाजी रुके हुए थे ,इनके पास मात्र 500 सैनिक थे। क्योंकि इन्होंने अपनी पूरी सेना रायगढ़ के लिए पहले ही भेज दी थी।
गैरों की बात सुनकर संभाजी को बहुत आश्चर्य हुआ और उन्हें इस बात का पूर्ण अंदेशा हो गया कि किसी ने उनके साथ गद्दारी की है अन्यथा ऐसा नहीं हो सकता कि चार-पांच दिनों में कोई कोल्हापुर से आकर उन्हें घेर लें।
तब उनके सामने उनके बहनोई गणोजी शिर्के का नाम आया, पहले तो उनको बहुत आश्चर्य हुआ लेकिन फिर उन्होंने समझ लिया कि यह बेईमानी उनके बहनोई नहीं की है, जिसके चलते उन्हें चारों तरफ से घेर लिया गया।
अब किसी भी परिस्थिति में छत्रपति संभाजी को युद्ध करना ही था अन्यथा वह घेराव को नहीं तोड़ सकते या फिर बचने का कोई दूसरा उपाय नहीं था।
संताजी घोरपड़े और खंडोबल्लाल के साथ संभाजी ने निश्चय किया कि अब शत्रुओं के ऊपर आक्रमण करना ही एकमात्र रास्ता है और उन्होंने ऐसा ही किया।
अपनी छोटी सी सेना के साथ यह मुकर्रब की सेना पर टूट पड़े। बहुत ही घमासान युद्ध हुआ इस युद्ध में संताजी घोरपड़े की मृत्यु हो गई साथ ही खंडोबल्लाल बुरी तरह घायल हो गए।
छत्रपति संभाजी और कवि कलश घेरा तोड़कर बाहर निकलने ही वाले थे कि कवि कलश के दाहिने हाथ में तीर लग गया जिससे वह नीचे गिर पड़ा। कवि कलश को बचाने के लिए छत्रपति संभाजी भी वापस आए लेकिन तब तक इन्हें बंदी बना लिया गया।
संभाजी को देखने के लिए पलकें बिछाए बैठे थे मुग़ल-
छत्रपति संभाजी और कवि कलश को लेकर मुकर्रब बहादुरगढ़ की तरफ निकले। लेकिन मुकर्रब खान को यह डर था कि कहीं मराठे उनके ऊपर आक्रमण ना कर दे।
उनके डर से वह जितना जल्दी हो सके बहादुरगढ़ पहुंचना चाहता था। संगमेश्वर और बहादुरगढ़ की दूरी लगभग 250 मील थी जिसे मात्र 13 दिनों में तय कर ली।
15 फरवरी 1689 का दिन था मुकर्रब खान छत्रपति संभाजी और कवि कलश को लेकर बहादुरगढ़ पहुंचे।
जहां पर पहले ही मुग़ल सैनिक पलके बिछाए संभाजी की राह देख रहे थे। ऐसा इसलिए था कि वह इस शूरवीर, पराक्रमी योद्धा को एक बार देखना चाहते थे कि वह देखने में कैसे लगते हैं।
अब इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि छत्रपति संभाजी कितने वीर थे और इनका मुगलों में कितना भय था।
औरंगजेब की सेना में 60 हजार घोड़े, 4 लाख पैदल सैनिक, 50 हजार ऊंट, 3 हजार हाथी, 250 बाजार पेठ कुल मिलाकर 7 लाख से भी अधिक सैनिक औरंगजेब की सेना में शामिल थे। यह बहुत ही विशाल सेना थी जो कि लगभग 30 मील एरिया में फैली हुई थी।
हाथ पैरों में लकड़ी फँसा कर, हाथी के ऊपर बांधकर दोनों को लेकर जब मुकर्रम खान बहादुरगढ़ पहुंचा और यह खबर मुगल बादशाह औरंगजेब को सुनाई तो, पहले तो उसको विश्वास नहीं हुआ वह अपने महल से दौड़ कर बाहर आया।
वह भी संभाजी को देखने के लिए आतुर था कि वास्तव में मुगल सेना ने ऐसा कर दिखाया या गलत सूचना है।
छत्रपति शिवाजी राजे भोसले का एक चित्र जो उस समय किसी चित्रकार ने बनाया गया था, आज भी अहमदनगर के संग्रहालय में रखा हुआ है। उसे देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस प्रकार संभाजी राजे के साथ क्रूरता पूर्ण व्यवहार किया था।
जैसे ही मुगल बादशाह औरंगजेब की नजर छत्रपति संभाजी पर पड़ी, वह भगवान का शुक्रिया अदा करने के लिए जमीन पर दोनों घुटने टेक कर बैठ गया। जैसे ही वह नीचे बैठा संभाजी के साथ खड़े कवि कलश ने यह वाक्य कहें-
“यावन रावन की सभा शंभू बंध्यों बजरंग।
लहू लसत सिंदूरसम खूब खेल्यो रनरंग।
जो रवि छवि लछत ही खद्योत होत बदरंग।
त्यो तूव तेज निहारी ते तखत त्यज्यो अवरंग।।“
इस श्लोक का बहुत ही सुंदर अर्थ है
जिस प्रकार रावण की सभा में हनुमान जी को लाया गया था, उसी तरह छत्रपति संभाजी को औरंगजेब के समक्ष लाया गया है। जिस तरह हनुमान जी के शरीर पर सिंदूर शोभित होता है ,उसी तरह आपके ऊपर रक्त शोभित हो रहा है।
जिस तरह सूर्य के प्रकाश को देखकर जुगनू का प्रकाश नष्ट हो जाता है उसी तरह औरंगजेब अपना सिंहासन छोड़ कर तुम्हारे समक्ष आया है।
जैसे ही यह कविता कवि कलश ने बोली औरंगजेब आग बबूला हो गया और उसने अपने साथियों को आदेश दिया कि तत्काल ही कवि कलश की जबान काट दी जाए।
आदेश का पालन करते हुए कवि कलश की जबान काट दी गई। औरंगजेब का दरबारी इख्लास खान बार-बर छत्रपति संभाजी को यह आदेश दे रहा था कि बादशाह को प्रणाम करें लेकिन संभाजी ने ऐसा नहीं किया इस बात से गुस्साए औरंगजेब ने तत्काल संभाजी को कारागृह में डालने का आदेश दिया।
सेनापति हंबीरराव मोहिते
शायद ही कोई इतनी यातनाओं को सह पाता
17 फरवरी 1689 का दिन मराठा साम्राज्य और हिंदू कभी नहीं भूल सकते हैं। यही वह काला दिन था जब छत्रपति संभाजी के साथ बहुत ही क्रूरता पूर्ण व्यवहार किया गया सबसे पहले संभाजी और उनके साथी कवि कलश की आंखों में आग में तपा कर लोहे की कील से आंखें फोड़ी गई उसके पश्चात उनके पूरे शरीर पर घाव किए।
औरंगजेब के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी। यह सभी के साथ इसी तरह का क्रूरता पूर्ण व्यवहार करता था। इनके एक-एक अंग को काट कर नदी के किनारे पर फेंक दिया।
इतना ही नहीं उनकी गर्दन को धड़ से अलग कर भाले की नोक पर रखकर पूरे क्षेत्र में घुमाया गया, इस तरह एक वीर योद्धा का बहुत ही अपमान किया गया यह एक अमानवीय घटना भी थी।
इस तरह अमर हो गए छत्रपति संभाजी महाराज, औरंगजेब बन गया राजधर्म को पैरों तले कुचलने वाला अपराधी
12 मार्च 1689 को “गुड़ी पड़वा” था। इस दिन हिंदू नववर्ष का आरंभ हुआ था और हिंदुओं के इस त्योहार पर संभाजी का अपमान करने के लिए 11 मार्च 1689 को उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया।
39 दिन तक इनको यातनाएं दी गई। 1 फरवरी से लेकर 11 मार्च तक इनके साथ जिस तरह क्रूरता पूर्ण व्यवहार किया गया वह असहनीय था।
औरंगजेब ने हर तरह की कोशिश की कि किसी भी तरह से संभाजी मुस्लिम धर्म को स्वीकार कर ले लेकिन उन्होंने नहीं किया।
यह अब तक के इतिहास का सबसे बर्बर हत्याकांड माना जाता है, इसके साथ ही औरंगजेब दुनिया का सबसे बड़ा राजधर्म को पैरों तले कुचलने वाला अपराधी बन गया।
छत्रपति संभाजी की मृत्यु के बाद क्या हुआ
आप भी जानना चाहते होंगे की छत्रपति शंभाजी महाराज की मृत्यु के पश्चात् क्या हुआ तो
सभी को ऐसा लग रहा था कि छत्रपति संभाजी महाराज की मृत्यु के बाद मराठे कमजोर पड़ जाएंगे लेकिन हुआ इसके विपरीत। संपूर्ण मराठा समुदाय उत्तेजित हो उठा और मुगलों के खिलाफ खड़ा हो गया।
भाई -बहन , बच्चे, बड़े बूढ़े, पुरुष, स्त्री सभी ने अपने हाथों में हथियार उठा लिए और औरंगजेब और उसकी सेना को धूल चटाने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने कसम खाई थी कि कैसे भी करके मुगलों का सर्वनाश करना है। इस तरह की एकता को देखकर औरंगजेब डर गया और छुपने लगा।
महारानी येसुबाई, तारा रानी, संताजी घोरपड़े,धनाजी जाधव, रामचंद्र पंथ अमात्य,शंकर जी नारायण एक साथ युद्ध के लिए निकल पड़े। देखते ही देखते मराठा सेना 3 लाख के पार पहुंच गई। मराठों का मुगलों के साथ लगातार 27 वर्ष तक युद्ध चला और अंत में औरंगजेब को मौत के घाट उतार दिया गया।
औरंगजेब और मुगलों के अंत के साथ ही विशाल हिंदू साम्राज्य का उदय हुआ।
छत्रपति संभाजी महाराज से संबंधित पूछे जाने वाले प्रश्न और उनके उत्तर
1 औरंगजेब ने छत्रपति संभाजी महाराज से कौन से दो प्रश्न पूछे थे और उन्होंने इसका क्या जवाब दिया?
उत्तर- 1 उसका खजाना कहां है जो संभाजी महाराज ने बुरहानपुर में लूटा था?
2 उन लोगों के नाम बताओ जो तुम्हारे मुखबिर थे?
जवाब- छत्रपति संभाजी महाराज ने जवाब दिया कि वह अपने स्वराज्य सिपाहियों के साथ धोखा नहीं कर सकते हैं यह सुनकर औरंगजेब ने छत्रपति संभाजी को मृत्युदंड देने का आदेश दिया।
2 महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण छत्रपति संभाजी महाराज से घृणा क्यों करते थे?
उत्तर- छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना में शामिल एक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण जो कि विरोधी हो गया था उसको संभाजी महाराज ने मौत के घाट उतार दिया था।
3 मराठा सेना ने छत्रपति संभाजी महाराज और कवि कलश को बचाने के लिए कुछ भी नहीं किया जबकि उन्हें पता लग गया था कि दोनों को औरंगजेब ने पकड़ लिया है?
उत्तर- छत्रपति संभाजी महाराज की सेना अस्त व्यस्त हो गई थी। साथ ही मुगलों द्वारा सबको अलग-अलग कर दिया गया था, इस वजह से वह चाहकर भी छत्रपति संभाजी को नहीं बचा सके। साथ ही उन्होंने यह भ्रम भी फैला दिया था कि छत्रपति संभाजी की मौत हो चुकी है।
4 छत्रपति संभाजी महाराज की पत्नी येसूबाई कब और कहां मरी?
उत्तर- संभाजी महाराज के बेटे “शाहू महाराज” के साथ रह रही थी और स्वाभाविक मृत्यु से उनकी मौत हुई थी लेकिन प्रमाणित वर्ष का पता नहीं है।
सोयराबाई का इतिहास।
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