महाराणा प्रताप का इतिहास || History Of Maharana Pratap

प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) का नाम सुनते ही हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास के एकमात्र ऐसे योद्धा थे जिन्हें शीश कटाना मंजूर था लेकिन किसी के सामने झुकाना नहीं. चित्तौड़गढ़ के सिसोदिया वंश में जन्म लेने वाले महाराणा प्रताप का नाम इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में हमेशा के लिए अंकित रहेगा.

सभी देश प्रेमी आज भी प्रातः उठकर महाराणा प्रताप की वंदना करते हैं. देशप्रेम, स्वाधीनता, दृढ़ प्रतिज्ञा, निर्भिकता और वीरता महाराणा प्रताप की रग-रग में मौजूद थी. मुगल आक्रांता अकबर ने महाराणा प्रताप को झुकाने के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया लेकिन दृढ़ प्रतिज्ञा के धनी महाराणा प्रताप तनिक भी ना झुके.

महाराणा प्रताप का पूरा नाम महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया था. स्वाधीनता और स्वाभिमान का दूसरा नाम थे महाराणा प्रताप जो कभी किसी के सामने झुके नहीं चाहे परिस्थितियाँ कुछ भी हो, मुग़ल आक्रांता अबकर भी शोकाकुल हो उठा जब उसने वीर महाराणा प्रताप की मृत्यु की खबर सुनी.

महाराणा प्रताप का इतिहास, जन्म और माता-पिता (Maharana Pratap History In Hindi)

महाराणा प्रताप का पूरा नाम (Full name of Maharana Pratap)महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया (Maharana Pratap Singh Sisodiya)
अन्य नाम (Other Name Of Maharana Pratap)हिंदुआ सूरज।
महाराणा प्रताप का जन्म स्थान (Birth place of Maharana Pratap)कुम्भलगढ़ दुर्ग।
महाराणा प्रताप का जन्म तिथि (date of birth of maharana pratap)9 मई, 1540 ईस्वी ( विक्रम संवत 1597 ज्येष्ठ सुदी ३, इतवार)
महाराणा प्रताप का मृत्यु स्थान (Death place of Maharana Pratap)चावंड (उदयपुर, राजस्थान)
महाराणा प्रताप की मृत्यु तिथि (date of death of maharana pratap)19 जनवरी 1597 ईस्वी।
महाराणा प्रताप के पिता का नाम (Maharana Pratap’s father’s name)महाराणा उदय सिंह द्वितीय
महाराणा प्रताप की माता का नाम (Maharana Pratap’s mother’s name)माता जयवंताबाई।
महाराणा प्रताप पत्नी का नाम (मुख्य रानी और पहली पत्नी)महारानी अजबदे पंवार जी.
महाराणा प्रताप की अन्य रानियाँ (Maharana Pratap Wifes)फूल कंवर राठौड़, रत्नकंवर पंवार, फूल कंवर राठौड़ द्वितीय, रणकंवर राठौड़, शाहमेता हाड़ी, आशकंवर खींचण, रत्नकंवर राठौड़, जसोदा चौहान, भगवत कंवर राठौड़, माधोकंवर राठौड़, प्यारकंवर सोलंकी, चंपाकंवर झाला और अमोलकदे चौहान.
महाराणा प्रताप के पुत्र (Maharana Pratap Sons)माना, नाथा, रायभान, रामसिंह, जसवंतसिंह, कल्याणदास, चंदा, पूर्णमल, हाथी, भगवानदास, सहसमल, गोपाल, दुर्जन सिंह सांवल दास, काचरा, सांवलदास और शेखा.
महाराणा प्रताप की बेटियाँ (Maharana Pratap Daughters)दुर्गावती, रखमावती, कुसुमावती, सुख कंवर और रखमावती.
महाराणा प्रताप के भाई (Maharana Pratap Brothers)शक्ति सिंह, वीरमदेव, जेत सिंह, राय सिंह, जगमल, अगर, सिंहा, नारायणदास, लूणकरण, महेशदास, मान सिंह, भव सिंह, नेतसी, सिंह, रुद्र सिंह, सगर, पच्छन, सुलतान, साहेब खान, खान सिंह, बेरिसाल, सरदुल और चंदा.
शासक (Maharana Pratap Was King Of)मेवाड़।
मुख्य युद्ध (Major battles of Maharana Pratap)हल्दीघाटी का युद्ध (21 May 1576), दिवेर का युद्ध (राजसमंद 1582 ईस्वी).
महाराणा प्रताप द्वारा लिखवाई पुस्तकें (Books written by Maharana Pratap)राज्याभिषेक, मूर्ति माला, विश्व वल्लभ रूप.
प्रताप से पूर्व शासकमहाराणा जगमाल सिंह।
महाराणा प्रताप के बाद शासकमहाराणा अमर सिंह।
महाराणा प्रताप की शासनअवधि 25 वर्ष।
महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक (Coronation of Maharana Pratap)28 फ़रवरी 1572 ईस्वी।
(Maharana Pratap History In Hindi)

महाराणा प्रताप का इतिहास (Maharana Pratap History In Hindi) हमारा गौरव हैं. मेवाड़ के शासक वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया का जन्म 9 मई, 1540 ईस्वी ( विक्रम संवत 1597 ज्येष्ठ सुदी ३, इतवार) को कुंभलगढ दुर्ग में हुआ था. महाराणा प्रताप का जन्म मेवाड़ के लिए उत्सव जैसा था. मुगलों के लिए काल बनकर पैदा हुए महाराणा प्रताप के पिता का नाम महाराणा उदय सिंह द्वितीय और माता का नाम महारानी जयवंताबाई था.

(Birth place of Maharana Pratap)

महारानी जयवंता बाई महाराणा उदय सिंह द्वितीय की पहली पत्नी थी, जिन्हें सौभाग्य से महाराणा प्रताप जैसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. बचपन से ही महाराणा प्रताप ने अध्ययन में रुचि लेना शुरू कर दिया. इसके साथ साथ महाराणा प्रताप युद्ध विद्या सीखने के लिए भी हर पल उत्साहित रहते थे.

बचपन से ही महाराणा प्रताप की भुजाओं में दमखम दिखता था बहुत जल्दी वह अस्त्र शस्त्र चलाने में माहिर हो गए. बाल्यकाल में महाराणा प्रताप को उनकी माता महारानी जयवंता बाई उनके पूर्वजों की महानता की कहानियां सुनाती थी. यहीं से महाराणा प्रताप के मन में स्वाधीनता का विचार आया.

महाराणा प्रताप के पिता और मेवाड़ के शासक महाराणा उदय सिंह द्वितीय को अपनी छोटी रानी माता सज्जा बाई से अत्यधिक प्रेम था, जिसके चलते बचपन में महाराणा प्रताप को पिता का प्रेम कम मिला. महाराणा उदय सिंह और सज्जा बाई सोलंकिनी के दो पुत्र थे जिनका नाम शक्तिसिंह और वीरमदेव था.

बचपन से ही महाराणा प्रताप और शक्ति सिंह के बीच अनबन चलती रहती थी. महाराणा उदयसिंह एक और पुत्र था जिसका नाम था जगमल या जगमाल. महाराणा प्रताप के अन्य भाई उनसे द्वेषता रखते थे लेकिन महाराणा प्रताप सभी भाइयों को समान दृष्टि से देखते और सभी छोटे भाइयों से अथाह प्रेम करते थे.

महाराणा प्रताप का परिवार (Maharana Pratap Family Tree)

महाराणा प्रताप का परिवार बहुत बड़ा था जिसमें उनके माता पिता के अलावा उनके भाई, पत्नियां आई उनके पुत्र-पुत्रियां थे.

महाराणा प्रताप के पिता का नाम महाराणा उदय सिंह द्वितीय और माता का नाम जयवंताबाई सोनगरा था.

महाराणा प्रताप के भाई:-

महाराणा प्रताप का इतिहास (Maharana Pratap History In Hindi) देखा जाए तो उनके 23 भाई थे, जिनका नाम शक्ति सिंह, वीरमदेव, जेत सिंह, राय सिंह, जगमल, अगर, सिंहा, नारायणदास, लूणकरण, महेशदास, मान सिंह, भव सिंह, नेतसी, सिंह, रुद्र सिंह, सगर, पच्छन, सुलतान, साहेब खान, खान सिंह, बेरिसाल, सरदुल और चंदा.

महाराणा प्रताप की पत्नियां:-(Maharana Pratap Wifes)

अजबदे पंवार (मुख्य रानी और महाराणा प्रताप की पहली पत्नी), फूल कंवर राठौड़, रत्नकंवर पंवार, फूल कंवर राठौड़ द्वितीय, रणकंवर राठौड़, शाहमेता हाड़ी, आशकंवर खींचण, रत्नकंवर राठौड़, जसोदा चौहान, भगवत कंवर राठौड़, माधोकंवर राठौड़, प्यारकंवर सोलंकी, चंपाकंवर झाला और अमोलकदे चौहान.

महाराणा प्रताप के बेटे:-

माना, नाथा, रायभान, रामसिंह, जसवंतसिंह, कल्याणदास, चंदा, पूर्णमल, हाथी, भगवानदास, सहसमल, गोपाल, दुर्जन सिंह सांवल दास, काचरा, सांवलदास और शेखा.

महाराणा प्रताप की बेटियां:-

महाराणा प्रताप की 5 बेटियां थी जिनका नाम दुर्गावती, रखमावती, कुसुमावती, सुख कंवर और रखमावती.

परम्परा के विपरीत जगमाल को सिंहासन और प्रताप का व्यवहार

महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) सबसे बड़े थे और महाराणा उदयसिंह द्वितीय के उत्तराधिकारी भी. महाराणा उदयसिंह द्वितीय की एक और रानी थी जिसका नाम था भटियानी. रानी भटियानी के पुत्र का नाम जगमाल था जिससे वह परंपराओं के विपरीत मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी.

Maharana Jagmal Singh

जैसे तैसे रानी ने महाराणा उदयसिंह द्वितीय को इसके लिए राजी कर लिया. हालांकि महाराणा उदयसिंह यह नहीं चाहते थे और वह जानते थे कि यह नियमों के विपरीत और मेवाड़ राजवंश के नियमों के खिलाफ हैं, फिर भी उन्होंने दिल पर पत्थर रखकर जगमाल को मेवाड़ की गद्दी सौंप दी. महाराणा उदयसिंह के बाद मेवाड़ के शासक बने जगमाल सिंह.

महाराणा प्रताप बड़े थे और मेवाड़ की गद्दी के उत्तराधिकारी थे. फिर भी उन्हें राजा नहीं बनाया गया, इस बात से वह उदास नहीं हुए और उन्होंने महाराणा जगमाल सिंह को प्यार दिया. इतिहासकार बताते हैं कि जगमाल डरपोक और अयोग्य शासक था. जैसे ही जगमाल के मेवाड़ का शासक बनने की खबर मेवाड़ में फैली, सभी सामंत पहले तो आश्चर्यचकित हुए और बाद में उन्होंने खेद जताया.

सभी सामंत और मेवाड़ राज्य के अधिकारी महाराणा प्रताप की वीरता और देश प्रेम के बारे में भली-भांति जानते थे. महाराणा प्रताप को राजा नहीं बनाए जाने से सभी नाराज थे.

उदयसिंह द्वितीय की मृत्यु हो गई उसके पश्चात मेवाड़ के महाराणा जगमाल सिंह ने महाराणा प्रताप को बुलाया और उन्हें मेवाड़ छोड़कर जाने का आदेश दिया. महाराणा प्रताप घोड़े पर बैठकर निकल पड़े. इस तरह से एक महान प्रतापी योद्धा को जाते हुए देखकर मेवाड़ वासियों में यह बात आग की तरह फैल गई तब जाकर सामंतों के मुखिया चंद्रावत कृष्ण ने महाराणा प्रताप का पीछा किया और उन्हें रोका.

महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक

चंद्रावत कृष्ण ने महाराणा प्रताप को समझा कर कहा कि आप किसी भी सूरत में मेवाड़ की सीमा लांग कर बाहर नहीं जाएंगे. चंद्रावती जी ने महाराणा प्रताप को उनके पुरखों की वीरता और त्याग के बारे में बताते हुए कहा कि यदि आप इन कठिन परिस्थितियों में मेवाड़ को छोड़कर चले जाएंगे तो मुगल आक्रांता अकबर आसानी के साथ राज्य हड़प लेगा. 

जगमाल अकबर का सामना नहीं कर पाएगा. ऐसे में बप्पा रावल के समय से चले आ रहे इस वंश का अंत हो जाएगा. आपको अपने पूर्वजों बप्पा रावल, महाराणा कुंभा, महाराणा सांगा सभी की प्रतिष्ठा और चाह को ध्यान में रखते हुए मेवाड़ का शासक बनना चाहिए ताकि इस राज्य और देश की विधियों से रक्षा की जा सके.

महाराणा प्रताप ना चाहते हुए भी रुक गए. सभी सामंत जानते थे कि महाराणा उदय सिंह जी द्वितीय द्वारा गलती हुई है. मेवाड़ की प्रजा को महाराणा प्रताप से अथाह प्रेम था. महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक 28 फ़रवरी 1572 ईस्वी (विक्रम संवत 1628 फाल्गुन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा के दिन हुआ था. महाराणा प्रताप के गद्दी पर बैठते ही मेवाड़ की सेना और जनता में उत्साह की लहर दौड़ गई.

महाराणा उदय सिंह द्वितीय के शासनकाल में मेवाड़ की स्थिति अच्छी नहीं थी, उनके शासनकाल में महाराणा उदय सिंह ने चित्तौड़गढ़ गंवा दिया था और उदयपुर में आकर बस गए. अतः मेवाड़ के उद्धार और स्वतंत्रता के लिए महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक विशेष महत्व रखता था.

जहां महाराणा प्रताप के सिंहासन पर बैठने से आमजन और सामंत खुश थे वही दूसरी तरफ जगमाल नाराज हो गया. सामंतों के मुखिया चंद्रावत कृष्ण ने अपने हाथों से महाराणा प्रताप को मुकुट पहनाते हुए तलवार भेंट की. ना सिर्फ महल में बल्कि संपूर्ण मेवाड़ में महाराणा प्रताप की जय के नारे का बहुत ही गर्मजोशी के साथ उदघोष हुआ.

मेवाड़ के सिंहासन पर बैठने के बाद महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा ली की “मैं मातृभूमि की रक्षा और अपने स्वाभिमान के लिए सर कटवाने के लिए तैयार हूं. यह शीश मातृभूमि के अलावा किसी के समक्ष नहीं झुकेगा.

जगमाल सिंह की नाराज़गी

महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) को मेवाड़ का शासक बनाए जाने के पश्चात जगमाल नाराज होकर वहां से निकल पड़ा. ऐसा कहा जाता है की जगमाल को अजमेर के सूबेदार ने जहाजपुर का परगना ठेके पर दिया और उनके बाल बच्चों के लिए रहने और खाने पीने की व्यवस्था की.

यहीं पर जगमाल की नाराजगी खत्म नहीं हुई. जगमाल मुगल आक्रांता अकबर से मिलने के लिए दिल्ली जा पहुंचा. मेवाड़ में अपने साथ हुए घटनाक्रम को उन्होंने अकबर को बताया. अकबर ने उन्हें धैर्य बंधाते हुए जहाजपुर का परगना उनको जागीर में दे दिया. अकबर बड़ा महत्वकांक्षी था, वह जैसे तैसे सभी हिंदू राजाओं और सामंतों को अपने साथ मिलाकर अपने साम्राज्य का विस्तार तो करना ही चाहता था लेकिन शताब्दियों से स्वतंत्र चले आ रहे मेवाड़ राज्य को हड़पना भी उसका सपना था.

जब अकबर का पैगाम लेकर कुंवर मानसिंह मेवाड़ पहुंचे

अकबर ने मेवाड़ में अपनी सेना भेजी जिसका सेनापति था आमेर का राजकुमार मानसिंह. मानसिंह के साथ जगन्नाथ कछवाहा, राजा गोपाल, बहादुर खां, लश्कर खां, जलाल खां, बूंदी के राव हाड़ा भोज, सैयद अब्दुल्ला, मुहम्मद कुली खां आदि सरदार भी शामिल थे. अकबर ने इन नायकों को साफ संदेश दिया कि जो अधीनता स्वीकार कर लेता है उसका सम्मान करो और जो अधीनता स्वीकार नहीं करता है उससे युद्ध करके मौत के घाट उतार दिया जाए.

अकबर का सेनापति मानसिंह डूंगरपुर पर विजय प्राप्त करके उदयपुर पहुंचा. यह जून 1573 ईस्वी की बात है. महाराणा प्रताप द्वारा सेनापति मानसिंह का स्वागत किया गया. मानसिंह ने अकबर का संदेश जब महाराणा प्रताप को सुनाया तो उन्होंने तत्काल इसे मानने से मना कर दिया. तरह-तरह के प्रयास किए जाने के बाद भी महाराणा प्रताप टस से मस नहीं हुए.

महाराणा प्रताप ने आदर पूर्वक मानसिंह को भोजन परोसा लेकिन स्वयं उनके पास बैठकर खाना नहीं खाया और उन्हें कड़े शब्दों में कहा कि जाकर अपने फूफा को बता देना कि महाराणा प्रताप का सिर कट सकता है लेकिन किसी के सामने झुक नहीं सकता.

मानसिंह महाराणा प्रताप के साथ भोजन करना चाहते थे लेकिन महाराणा प्रताप ने साफ मना कर दिया. कुंवर मानसिंह ने महाराणा प्रताप से कहा कि आपको युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए. महाराणा प्रताप ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि आप अपनी सेना लेकर आइए उसी तरह आपकी युद्ध मैदान में आवाभगत और स्वागत सत्कार किया जाएगा. उस समय वहां पर भीमसिंह डोडिया मौजूद थे. भीमसिंह डोडिया ने भी कुंवर मानसिंह को धमकी भरे शब्दों में तत्काल वहां से निकल जाने का आदेश दिया.

अकबर के दरबारी अबुल फजल लिखते हैं कि मानसिंह के वहां से जाने के पश्चात, जहां पर मानसिंह ने खाना खाया था उस जगह को महाराणा प्रताप ने खुदवाकर गंगा जल छिड़का और उसको पवित्र किया. साथ ही वहां पर मौजूद सभी राजपूत योद्धाओं को कपड़े बदलवा कर स्नान करने का आदेश दिया. इसकी मुख्य वजह यह थी कि वह अकबर से मिला हुआ था और अपनी बुआ की शादी अकबर से करवाई थी. जिससे महाराणा प्रताप नाखुश थे, साथ ही यह राजपूत योद्धाओं के लिए शर्म की बात थी. आमेर के कुंवर मानसिंह वापस लौट गए लेकिन महाराणा प्रताप और मेवाड़ के सिपाही सतर्क हो गए क्योंकि उन्हें पता था कि मुगल आक्रांता अकबर आक्रमण जरूर करेगा.

हल्दीघाटी का युद्ध (Battle of Haldighati, 21 May 1576)

हल्दीघाटी का युद्ध भारत के इतिहास के मुख्य युद्धों में से एक हैं. एक तरफ स्वाभिमान और स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे महाराणा प्रताप की सेना थी तो दूसरी तरफ मुगल आक्रांता अकबर और डरपोक मानसिंह जैसे गद्दारों की फौज शामिल थी. कुंवर मानसिंह के नेतृत्व में अकबर की सेना खमनोर के पास बनास नदी के किनारे जुटने लगी.

Battle Of Haldighati

दूसरी तरफ महाराणा प्रताप भी अपनी छोटी लेकिन बहादुर सेना के साथ युद्ध के लिए तैयार थे. 30 मई 1576 ईस्वी का दिन था. अकबर के सेनापति मानसिंह के साथ अलग-अलग मोर्चों पर गाजी खान, राय लूणकरण, जगन्नाथ कच्छावा, ख्वाजा गयासुद्दीन अली, आसिफ खान और चंदावल, माधव सिंह आदि मौजूद थे.

दूसरी तरफ महाराणा प्रताप की सेना में भामाशाह और उनका भाई ताराचंद, झाला मानसिंह, झाला बिदा, सोनगरा मानसिंह सजावत, भीमसिंह डोडिया (हरावल का काम देख रहे थे), रावत कृष्ण दास चुंडावत, राम सिंह राठौड़, हकीम खां सूरी, राणा पूंजा, जगन्नाथ पुरोहित गोपीनाथ पुरोहित कल्याण परिहार जयमल मेहता रतन चंद खेमावत जैसे वीर और मातृभूमि के लिए मर मिटने वाले शासक मौजूद थे. जहां महाराणा प्रताप के सैनिकों के पास सिर्फ तीर कमान, भाले, तलवारे जैसे हथियार थे, वहीं दूसरी तरफ अकबर की सेना के पास गोला-बारूद और बंदूकें भी थी.

21 मई 1576 ईस्वी में महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बिच विश्व प्रसिद्ध हल्दीघाटी का युद्ध हुआ था. जहां महाराणा प्रताप की सेना में मात्र 20000 सैनिक थे वहीं दूसरी ओर अकबर की सेना में 80000 से अधिक सैनिक थे. हल्दीघाटी में एक भीषण युद्ध की शुरुआत हो चुकी थी दोनों तरफ से सैनिक और सेनापति जीत के लिए लड़ रहे थे. महाराणा प्रताप के लिए यह जीत बहुत महत्वपूर्ण थी.

महाराणा प्रताप जीत के साथ साथ और मेवाड़ की आन, बान और शान के लिए लड़ाई लड़ रहे थे. महाराणा प्रताप की तरफ से हल्दीघाटी के युद्ध में वीरता दिखाते हुए जयमल का पुत्र रामदास राठौड़, जगन्नाथ कच्छावा के साथ लड़ाई करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ.

झाला बिदा, झाला मानसिंह और ग्वालियर के राजा राम सिंह बहुत ही बहादुरी के साथ लड़ाई लड़ रहे थे. महाराणा प्रताप अपने घोड़े चेतक पर बैठकर कुंवर मानसिंह के पास पहुंचे और अपने धनुष से एक बाण छोड़ा जो मानसिंह के बहुत करीब से निकला. मानसिंह को ऐसा लगा जैसे उसके पास से मौत गुजरी हो. अब तक युद्ध में मेवाड़ के वीर भीमसिंह डोडिया बहुत ही बहादुरी के साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए. दूसरी तरफ महाराणा प्रताप की सेना का आक्रमण देखकर मुगल आक्रांता अकबर की शाही फौजी के कदम पीछे हटने लगे.

अकबर की सेना में मायूसी छा गई थी. सेना की कई टुकड़िया युद्ध भूमि को छोड़कर भागने को मजबूर हो गई. तभी वहां पर मौजूद चंदावल ने जोर-जोर से शोर मचाया की अकबर आ गया अकबर आ गया, जिससे उनकी सेना में पुनः जोश भर गया.

जब चेतक ने अपने दोनों पैर उठाकर मुगल सेनापति मानसिंह पर हमला किया, तब मानसिंह के हाथी की सूंड में लगी तलवार से उसके पीछे का पैर कट गया और इसी वजह से महाराणा प्रताप को युद्ध भूमि से निकलकर गोगुंदा की तरफ जाना पड़ा.

खुरासान खान और मुल्तान खान नामक दो मुगल सैनिकों ने महाराणा प्रताप का पीछा किया. यह देखकर महाराणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह भी उनके पीछे चल पड़े और महाराणा प्रताप की जान बचाई. शक्तिसिंह ने महाराणा प्रताप से कहा कि चेतक की एक टांग कट चुकी है, आप मेरे घोड़े त्राटक को लेकर जाइए.

इस युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना में 20000 सैनिक शामिल थे वही मुगल सेना में 80 हजार से अधिक सैनिक शामिल थे. हल्दीघाटी के युद्ध में हालांकि मेवाड़ की सेना को अधिक क्षति हुई लेकिन मुगल सेना मेवाड़ पर कब्जा नहीं कर सकी. महाराणा प्रताप इस युद्ध में अपने प्रताप को दिखाते हुए मुगल सेना में खौफ पैदा कर दिया.

जिस दिन यह युद्ध शुरू हुआ उसी दिन समाप्त भी हो गया. इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड कहते हैं कि युद्ध के बाद मुगल आक्रांता अकबर ने अपने सभी सैनिकों और सिपाहियों को उपहार स्वरूप कई तोहफे दिए लेकिन उनके मन में यह खलल तो रह गई कि वह महाराणा प्रताप को ना तो मार सके ना ही पकड़ सके. बादशाह अकबर को यह समझ नहीं आ रहा था कि हम जीते हैं या महाराणा प्रताप ने हमें मूर्ख बनाया.

इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप को जंगल में रहने के लिए विवश होना पड़ा. जमीन पर सोने के अतिरिक्त सुखी और घास की रोटियां खाने के लिए महाराणा प्रताप को मजबूर होना पड़ा लेकिन वह कभी झुके नहीं. महाराणा प्रताप की युद्ध प्रणालियों में छापामार युद्ध पद्धति जिसे गोरिल्ला युद्ध पद्धति के नाम से भी जाना जाता है मुख्य थी. इसी छापामार युद्ध पद्धति के सहारे महाराणा प्रताप धीरे-धीरे मुगलों से उन सभी क्षेत्रों को पुनः अपने अधिकार में ले लिया जिन पर अकबर की सेना ने कब्जा कर लिया था.

मुगल आक्रांता अकबर के सेनापति कुंवर मानसिंह ने अपने कुछ सैनिकों को गोगुंदा में ही रहने दिया और अपने कब्जे में ले लिया. जब वह पुनः अजमेर लौट गया तब महाराणा प्रताप के सैनिकों ने आक्रमण करके गोगुंदा को पुनः कब्जे में ले लिया. हल्दीघाटी का युद्ध निर्णायक रहा.

महाराणा प्रताप को भामाशाह का साथ

हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी. राशन से लेकर हथियार तक सभी के लिए तंगी चल रही थी. तभी रणकपुर नामक स्थान पर महाराणा प्रताप और भामाशाह नामक एक पूंजीपति की मुलाकात हुई.

भामाशाह ने महाराणा प्रताप की मदद की और अथाह धन देकर महाराणा प्रताप को आर्थिक रूप से मजबूती प्रदान की. यह मदद महाराणा प्रताप के लिए बहुत जरूरी थी, इसीलिए जब भी महाराणा प्रताप का नाम लिया जाता है तब भामाशाह को भी याद किया जाता है.

भामाशाह का नाम मेवाड़ में बहुत ही प्रसिद्ध है, भामाशाह को मेवाड़ का उद्धारक और दानवीर कहकर याद किया जाता है.

कुंभलगढ का युद्ध

हल्दीघाटी के युद्ध और दिवेर के युद्ध के बारे में सब जानते हैं लेकिन कुंभलगढ़ के युद्ध के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है. हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर महाराणा प्रताप को पकड़ने में नाकामयाब रहा. ना तो अकबर महाराणा प्रताप को पराजित कर सका ना ही, उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ सका और ना महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) ने कभी उनकी अधीनता स्वीकार की. यही वजह रही कि छुटपुट युद्ध होते रहे जिनमें कुंभलगढ़ का युद्ध भी महत्वपूर्ण है.

अकबर अपने सेनापति शाहबाज खान के नेतृत्व में कुंभलगढ़ पर निरंतर आक्रमण करता रहा. वर्ष 1577 ईस्वी में, 1578 ईस्वी में और 1579 ईस्वी में इन युद्धों में हालांकि अकबर को जीत मिली और कुंभलगढ़ पर अधिकार कर लिया लेकिन फिर भी महाराणा प्रताप को नहीं झुका सके.

वर्ष 1580 में एक महत्वपूर्ण घटना घटित हुई जिसने महाराणा प्रताप का मान और सम्मान कई गुना बढ़ा दिया. दरअसल हुआ यह कि महाराणा प्रताप का पुत्र कुंवर अमर सिंह शेरपुर नामक स्थान पर मुगल सेनापति रहीम की बेगमों को बंदी बनाकर कैद कर दिया.

जब इसकी खबर Maharana Pratap को लगी तो उन्हें बहुत ठेस पहुंची और उन्होंने कहा कि यह मेवाड़ के नियमों के विरुद्ध है. महाराणा प्रताप ने उन सभी बेगमों को ससम्मान मुक्त किया और कुंवर अमर सिंह को आदेश दिया कि भविष्य में इस तरह की घटना नहीं होनी चाहिए. इस बात से हम महाराणा प्रताप की महिलाओं के प्रति सम्मान की भावनाओं को देख सकते हैं.

दिवेर का युद्ध (1582 ईस्वी)

Maharana Pratap और अकबर की सेना के बीच में लड़ा गया हल्दीघाटी का युद्ध अंतिम और एकमात्र युद्ध नहीं था. हालांकि हल्दीघाटी का युद्ध अनिर्णायक रहा था जिसमें महाराणा प्रताप को जान माल की हानि हुई लेकिन दूसरी तरफ अकबर की सेना भी मेवाड़ी सैनिकों की वीरता और साहस से अवगत हो चुकी थी.

अकबर किसी भी तरह महाराणा प्रताप को जिंदा या मुर्दा पकड़ना चाहता था लेकिन वह उसके जीवनकाल में कभी भी कामयाब नहीं हुआ.

अब बात करते हैं दिवेर के युद्ध की जो सन 1582 में राजस्थान के राजसमंद जिले के दिवेर नामक स्थान पर लड़ा गया था. जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा की हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात मुगलों ने कुंभलगढ़, गोगुंदा, उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर अधिकार कर लिया था. जिन्हें धीरे-धीरे महाराणा प्रताप ने छापामार युद्ध प्रणाली का उपयोग करते हुए वापस मुक्त करवाया.

कई इतिहासकार और लोग हल्दीघाटी के युद्ध को अंतिम और निर्णायक मानते हैं लेकिन यह सत्य नहीं है. हल्दीघाटी का युद्ध महाराणा प्रताप और मुगल सेना के बीच एक शुरुआत मात्र था. महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात भी आगामी 10-15 सालों तक मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए युद्धरत रहे.

हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात “दिवेर का युद्ध” हुआ था जिसे “बैटल ऑफ़ दिवेर” के नाम से जाना जाता है. इस युद्ध में मुगल सेना को महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) की सेना ने तहस-नहस कर दिया. प्रसिद्ध इतिहासकार और लेखक कर्नल जेम्स टॉड अपनी किताब में जहां हल्दीघाटी के युद्ध को “थर्मोपल्ली ऑफ मेवाड़” के नाम से संबोधित किया है वही दिवेर के युद्ध को “मेवाड़ का मैराथन” ( मैराथन एक जगह का नाम है जहां पर ईरान बनाम यूनान का युद्ध हुआ था) कहकर संबोधित किया है.

महाराणा प्रताप को भामाशाह ने जो मदद की उससे उन्होंने अपनी सेना का पुनर्गठन किया. कर्नल जेम्स टॉड भी यह मानते हैं कि मेवाड़ के वीर और महाराणा प्रताप अपने से 4 गुना बड़ी सेना से नहीं डरते थे बल्कि सीना तान कर उनका सामना करते थे.

“दिवेर का युद्ध” अकबर की मुगल सेना और महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) के पुत्र अमर सिंह के नेतृत्व में लड़ा गया था. इसी युद्ध में महाराणा प्रताप ने बहलोल खान को घोड़े समेत दो टुकड़ों में काट दिया था. इस तरह मेवाड़ी वीरों द्वारा बड़ी ही निर्ममता के साथ मुगल सेना को काटते हुए देखकर मुगल सेना में हाहाकार मच गया और मुगल सैनिक अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे.

इतिहासकार बताते हैं कि दिवेर के युद्ध में हजारों मुगल सैनिकों ने महाराणा प्रताप के सामने आत्मसमर्पण किया था. इस युद्ध के बाद मुगलों का मनोबल बुरी तरह से टूट गया. दिवेर के ऐतिहासिक युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप का रुतबा मेवाड़ में काफी बढ़ गया.

इस क्षेत्र में गुजरने मात्र से मुगल सैनिकों को महाराणा प्रताप को रकम अदा करनी पढ़ती थी. महाराणा प्रताप ने अपने सैन्य अभियानों को जारी रखते हुए हल्दीघाटी के युद्ध और उससे पहले जिन मेवाड़ के ठिकानों पर मुगलों ने अधिकार कर लिया था उन्हें पुनः मुक्त करवा दिया, जिसमें चित्तौड़, गोगुंदा, कुंभलगढ़, बस्सी,चावंड, मदारिया, मांडलगढ़ जैसे महत्वपूर्ण ठिकानों का नाम आता है.

1582 ईस्वी में हुए दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) ने मुगल सेनापति सुल्तान खान को मौत के घाट उतार दिया और दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप की जीत हुई. दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप ने ईडर, डूंगरपुर और बांसवाड़ा आदि रियासतों का एक मजबूत संगठन बनाकर युद्ध किया जिससे उन्हें सफलता मिली.

महाराणा प्रताप और अकबर का अंतिम युद्ध

वर्ष 1585 महाराणा प्रताप और अकबर के बीच अंतिम युद्ध लड़ा गया या फिर ऐसा कहें कि अकबर ने महाराणा प्रताप के खिलाफ 1585 में अंतिम बार आक्रमण किया था. इस युद्ध में मुगल सेना का सेनापति था जगन्नाथ कछवाहा.

इस युद्ध में भी अकबर को सफलता नहीं मिली इसके बाद महाराणा प्रताप ने चावंड को राजधानी बनाया. चावंड उदयपुर में स्थित चामुंडा माता के मंदिर का निर्माण महाराणा प्रताप ने ही करवाया था. इतिहासकार बताते हैं कि अकबर की बड़ी मुगल सेना के सामने भी डटकर लड़ने वाले महाराणा प्रताप ने सिर्फ मांडलगढ़ और चित्तौड़गढ़ को छोड़कर संपूर्ण मेवाड़ को पुनः आजाद करवाया.

महाराणा प्रताप की जीत के प्रमाण।

महाराणा प्रताप द्वारा लिखी गई पुस्तकें

1 राज्याभिषेक.

2 मूर्ति माला.

3 विश्ववल्लभ रूप.

महाराणा प्रताप की मृत्यु कैसे हुई? (How did Maharana Pratap die?)

महाराणा प्रताप की मृत्यु ना सिर्फ मेवाड़ के लिए बल्कि संपूर्ण भारतवर्ष के लिए एक बहुत बड़ी क्षति थी. 19 जनवरी 1597 ईस्वी में लगभग 56-57 वर्ष की आयु में महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई.

महाराणा प्रताप जब शेर का शिकार करने के लिए कमान को जोर से खींचा तो वह सीधा उनके पेट पर जा लगा। यह चोट इतनी तेज थी कि महाराणा प्रताप घायल हो गए और अंततः यही आगे चलकर उनकी मौत का कारण बना।

अपनी ज़िंदगी के आख़िरी लम्हे महाराणा प्रताप ने चावंड (उदयपुर, राजस्थान) नामक गांव में बिताया। जिस दिन महाराणा प्रताप की मृत्यु हुई, उस दिन सुबह से ही वह बहुत उदास और चिंतित लग रहे थे।

शायद उनका मन कहीं अटका हुआ था। महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) ने उन सभी लोगों को पास में बुलाया जो उनके बहुत करीबी थे जिनमें उनका पुत्र अमर सिंह और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ मंत्री और सामंत मौजुद थे जिन्होंने हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप का साथ दिया था।

तभी हिम्मत करके सलूंबर के सामंत चुंडावत जी ने महाराणा प्रताप से उनके दुःखी होने का कारण पूछा। वहां पर मौजूद सभी लोग महाराणा प्रताप की ओर देखने लगे। महाराणा प्रताप कुछ बोलते उससे पहले ही सामंत ने महाराणा से पूछा कि क्या कारण कि आपके शरीर और प्राणों में भयंकर युद्ध हो रहा हैं फिर भी आपके प्राण शरीर को छोड़ने को तैयार नहीं हैं।

प्रश्न बहुत जटिल था इस पर महाराणा मंद मंद मुस्कुराने लगे हालांकि चिंता की लकीरें उनके चेहरे पर साफ दिख रही थी,और यह चिंता थी मेवाड़ के गौरव की रक्षा करना।

क्योंकि महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) को लगता था कि उनके पुत्र महाराणा अमर सिंह थोड़े कमज़ोर और आरामपसंद व्यक्ती हैं।

आगे महाराणा प्रताप ने कहा कि मेवाड़ के सभी मुख्य सामंत और मंत्री यहां पर मौजुद है अगर आप मुझे यह आश्वासन दो कि मेरी मृत्यु के पश्चात आप मेवाड़ की आन बान और शान की रक्षा के लिए तत्पर रहेंगे एवं इसके गौरव की रक्षा करेंगे।

एक राजा का इससे बड़ा देश प्रेम क्या हो सकता हैं। महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) की बात सुनकर सभी सामंत उठ खड़े हुए और एक साथ सभी ने मेवाड़ के प्रथम राजा बप्पा रावल (कालभोज) की शपथ लेकर महाराणा को आश्वासन दिया कि हमारे प्राण चले जाए लेकीन मेवाड़ की शान और इसके गौरव की रक्षा के लिए हम हर समय अपना शीश कटाने के लिए तैयार रहेंगे।

यह बात सुनकर महाराणा प्रताप का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। उन्होंने मुस्कुराते हुए 19 जनवरी 1597 के दिन अन्तिम सास ली।

महाराणा प्रताप की मृत्यु की खबर जब अकबर तक पहुंची!

महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) कितने बड़े योद्धा थे यह मुगल शासक अकबर से ज्यादा कोई नहीं जान सकता है क्योंकि अकबर ने पूरा जोर लगा दिया फिर भी महाराणा प्रताप को ना तो जिंदा पकड़ सके ना ही उन्हें झुका सके अर्थात ना अपनी अधीनता स्वीकार करवा सकें.

महाराणा प्रताप की मृत्यु की खबर जब मुग़ल शासक अकबर के पास पहुंची तो वह सुनकर स्तब्ध रह गया। अकबर के दरबारी कवि दुरसा आढ़ा जो कि मुग़ल दरबार में कवि थे साथ ही महाराणा प्रताप की मृत्यु की खबर जब अकबर के पास पहुंची तब भी वहां मौजूद थे।

कवि दुरसा आढ़ा लिखने हैं कि ना सिर्फ अकबर बल्कि पूरा दरबार शौकाकुल हो उठा। अकबर को जीवन भर इस बात का मलाल रहा कि वह जीते जी कभी महाराणा प्रताप (Maharana Pratap) को नहीं पकड़ सके.

Blogger द्वारा संचालित.