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सेनापति हंबीरराव मोहिते (Hambirrao Mohite History In Hindi)

सेनापति हंबीरराव मोहिते का इतिहास

सेनापति हंबीरराव मोहिते (Hambirrao Mohite ) महारानी ताराबाई के पिता और छत्रपति शिवाजी महाराज के द्वितीय पुत्र राजाराम के ससुर थे।

इतना ही नहीं ये मराठा साम्राज्य के पहले सेनापति भी थे। छत्रपति शिवाजी महाराज का कदम कदम पर साथ देने के अलावा कई महत्वपूर्ण मिशन को इन्होंने अंजाम दिया था।

पूरा नाम- सरसेनापति हंबीरराव बाजी( हंसाजी) मोहिते।

माता का नाम- इनकी माता का नाम अज्ञात हैं।

पिता का नाम- इनके पिता का नाम संभाजी मोहिते था।

हंबीरराव मोहिते का जन्म- 1 मई 1630 ईस्वी,तलबीद नामक स्थान पर हुआ था।

हंबीरराव मोहिते की मृत्यु- 16 दिसंबर 1687 ईस्वी, वाई नामक स्थान पर हुआ था।

सेनापति हंबीरराव मोहिते का बचपन सुपे में बीता था। इनके पिता संभाजी मोहिते बहुत ताकतवर, वीर, ऊर्जावान और साहसी सरदार थे।

अपने पिता से ही इनको वीरता, त्याग और बलिदान, पराक्रमी जैसे गुण मिले। अपनी वफादारी , स्वामिनिष्ठा और विराता के चलते यह भारत के इतिहास में प्रसिद्ध हुए। छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ इनका नाम बड़ी ही वीरता के साथ लिया जाता था। ऐसा कहा जाता हैं कि “हंबीरराव” की उपाधि इनको शिवाजी महाराज के द्वारा प्रदान की गई थी।

हंबीरराव के सेनापति बनने की कहानी (Story Of Hambir rao mohite)

छत्रपति शिवाजी महाराज के बहुत ही विश्वसनीय सेनापति थे जिनका नाम नेताजी पालकर था। नेताजी के आयु अधिक हो जाने की वजह से शिवाजी ने इनके बाद कुड़तोजी/प्रतापराव को अपना सेनापति नियुक्त किया।

इस समय मुगल आक्रमणकारी बहलोल खान ने आक्रमण कर दिया लेकिन छत्रपति शिवाजी महाराज के सेनापती प्रतापराव ने बहलोल खान को पकड़ लिया। लेकिन यहां पर प्रतापराव ने गलती कर दी और बहलोल खान को वापस छोड़ दिया। जबकि मौत के घाट उतारा जाना चाहिए था।

इस बात को लेकर छत्रपति शिवाजी महाराज बहुत दुखी हुए, उनके साथ ही पूर्व सेनापति नेताजी पालकर को भी बहुत दुख हुआ। जब बहलोल खान अपनी सेना के साथ वापस लौट रहा था तो पूर्व सेनापति नेताजी पालकर से रहा नहीं गया और उन्होंने मात्र पांच छह साथियों के साथ मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया।

इस युद्ध से शिवाजी को बहुत दुखद समाचार प्राप्त हुआ। सेनापति नेताजी पालकर और सभी साथी मारे गए। शिवाजी की सेना में एक सैनिक, जिसका नाम था हंबीरराव।

हंबीरराव खुद जासूसी करते हुए अपने दम पर “मूल्हेर” नामक क़िले को जीता था। इस बात से छत्रपति शिवाजी बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने प्रतापराव गुजर को सेनापति के पद से हटा दिया और मुख्य सेनापति के तौर पर हंबीरराव को नियुक्त किया।

किसानों के हित के लिए अब्दुलरहीम को उतारा मौत के घाट

कोपल प्रांत जो कि कर्नाटक में स्थित था, वहां पर आदिलशाह के सरदारों ने अधिकार जमा रखा था। आदिल शाह के दो मुख्य सरदार वहां पर तैनात थे, जिनका नाम अब्दुल रहीम खान और उसका भाई हुसैन मियां था।

इन दोनों ने यहां पर बहुत अत्याचार किए और तो और यह लोग किसानों के पशुओं तक को मार देते थे। साथ ही किसानों द्वारा पैदा किया गया अन्न भी लूट कर ले जाते थे।

हताश और निराश कोपल की जनता छत्रपति शिवाजी महाराज के दरबार में पहुंची। तब छत्रपति शिवाजी महाराज ने उनको मदद का आश्वासन दिया। कोपल को मुक्त कराने के लिए शिवाजी ने सेनापति हंबीरराव मोहिते को चुना।

सन 1677 में सेनापति हंबीरराव मोहिते और धनाजी जाधव ने धावा बोल दिया। येलबुर्गा मैं लड़ी गई इस लड़ाई में जिस तरह से मराठी सेना ने तबाही मचाई, उसने अब्दुल रहीम खान की आधी से अधिक सेना का खात्मा कर दिया।

आदिल शाह का मुख्य सरदार अब्दुल रहीम खान इस युद्ध में मारा गया जबकि उसका साथी हुसैन खान को कैद कर लिया गया।

जिसे बाद में गोवलकुंडा में छत्रपति शिवाजी महाराज के समक्ष पेश किया गया। कोपल किले के बदले शिवाजी जी ने हुसैन खान को जीवनदान दिया।

जब सेनापति हंबीरराव को शिवाजी के भाई से करना पड़ा युद्ध

मोहित और मुस्लिम परिवार में रिश्तो को सुधारने और गहरे बनाने के लिए सेनापति हंबीरराव के पिता संभाजी मोहिते ने उनकी बहन तुकाबाई की शादी शाहजी भोंसले से करवा दी। इतना ही नहीं अपनी दोनों बेटियों की शादी भी छत्रपति शिवाजी और व्यंकोजी से करवा दी गई।

छत्रपति शिवाजी महाराज के भाई व्यंकोजी महाराज उस समय दक्षिण में शासन कर रहे थे। जब शिवाजी कर्नाटक विजय के लिए दक्षिण की ओर बढ़े तो उन्होंने अपने भाई से मिलने की इच्छा जाहिर की। लेकिन व्यंकोजी  ने छत्रपति शिवाजी से मिलने से इनकार कर दिया।

व्यंकोजी महाराज को डर था कि छत्रपति शिवाजी महाराज उनके ऊपर आक्रमण करना चाहते हैं, जबकि ऐसा नहीं था। व्यंकोजी महाराज के मिलने से मना करने के पश्चात छत्रपति शिवाजी महाराज ने उनसे हिस्सा मांगा जिसके लिए उन्होंने साफ मना कर दिया।

इस बात से शिवाजी बहुत दुखी हुए और उन्होंने अपने सेनापति हंबीरराव को आज्ञा दी कि व्यंकोजी महाराज के अधीन जितने भी किले हैं उन्हें जीतना है।

चिदंबरम, कावेरिपट्टम,जगदेव गढ़ और वृद्धाचलम जैसे मुख्य किलो को जीतकर अपने में मिला लिया। इस घटना से व्यंकोजी महाराज बहुत दुखी हुए और वह मौके की तलाश में थे।

6 नवंबर 1677 में मौका पाकर व्यंकोजी महाराज ने छत्रपति शिवाजी महाराज के सेनापति हंबीरराव पर धावा बोल दिया। इस लड़ाई में व्यंकोजी महाराज की जीत हुई और सेनापति हंबीरराव को बुरी तरह कुचल दिया गया।

व्यंकोजी महाराज की तुलना में सेनापति हंबीरराव की सेना अधिक थी।हंबीरराव ने एक प्लान बनाया और गोरिल्ला युद्ध प्रणाली के तहत व्यंकोजी महाराज के ऊपर छुपकर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में व्यंकोजी महाराज को हार का सामना करना पड़ा।

इसके पश्चात भी नियमित अंतराल पर सेनापति हंबीरराव और व्यंकोजी महाराज के बीच युद्ध होते रहे। बाद में छत्रपति शिवाजी महाराज ने हस्तक्षेप किया और इस युद्ध को पूरी तरह खत्म किया गया।

आदिलशाह से वेल्लोर किला जीता

उस समय वेल्लोर किला सबसे महत्वपूर्ण किलो में से एक था। जिस पर आदिलशाह का कब्जा था। इस किले को जीतना इसलिए भी मुश्किल था कि इसके चारों तरफ गहरी खाई खुदी हुई थी और इस खाई में भरे पानी में कई घड़ियाल छोड़ रखे थे ताकि कोई भी आसानी के साथ इस किले की तरफ ना आ सके।

लेकिन सेनापति हंबीरराव की बहादुरी से हर कोई परिचित था उन्होंने ठान लिया कि यह किला कैसे भी करके आदिलशाह से मुक्त करवाना है। उन्होंने इस किले की घेराबंदी करना शुरू कर दी। घेराबंदी हो जाने के बाद इस किले से कोई भी व्यक्ति ना तो बाहर आ सकता था और ना ही बाहर से इसके अंदर जा सकता था।

धीरे-धीरे आदिलशाह की सेना का राशन खत्म होने लगा। आदिल शाह का सरदार अब्दुल्लाह शाह इस किले से बाहर निकल कर आया और सेनापति हंबीरराव के सामने हाथ जोड़कर माफ करने के लिए बोला।

हंबीरराव ने उनको माफ कर दिया और किले को अपने अधीन कर लिया।

छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ लड़ा गया अंतिम युद्ध

सन 1679 में हंबीरराव ने छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ मिलकर अंतिम युद्ध मुगलों के साथ लड़ा था। जालना शहर पर मुगलों ने कब्जा जमाए रखा था। छत्रपति शिवाजी महाराज कैसे भी करके इस शहर को जीतना चाहते थे।

जालना शहर को जीतने का मक़सद धन दौलत इकट्ठा करना भी था। सेनापति हंबीरराव की अगुवाई में 20000 सेना के साथ छत्रपति शिवाजी महाराज ने जालना पर आक्रमण कर दिया और लगभग 4 से 5 दिनों तक धन दौलत लूटते रहे।

इस दौरान औरंगाबाद के केसरी सिंह और सरदार खान ने छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना को घेर लिया। सरदार खान ने पूरी योजना बना रखी थी कि इस युद्ध में कैसे भी करके छत्रपति शिवाजी महाराज को मारना है।

लेकिन इस बीच केसरी सिंह का मन परिवर्तित हो गया और उन्होंने शिवाजी की जान बचाने की योजना बनाई। केसरी सिंह के करीबी बहरजी नायक ने एक ऐसा गुप्त रास्ता बताया जिसके सहारे शिवाजी बचकर निकल सकते थे। तीन-चार दिनों तक इस गुप्त रास्ते की मदद से शिवाजी बचकर अपने गृह राज्य पहुंचे।

शिवाजी महाराज की मृत्यु और संभाजी महाराज को हंबीरराव का समर्थन

3 अप्रैल 1680 को मराठा साम्राज्य के लिए एक काला दिन माना जाता है। इस दिन भारत के सबसे शूरवीर, प्रतापी और सम्राट महाराजा छत्रपति शिवाजी महाराज पंचतत्व में विलीन हो गए।

शिवाजी के मंत्रिमंडल में कुछ ऐसे लोग थे जो राज्य के विरुद्ध हो गए और उन्होंने शिवाजी के छोटे बेटे राजाराम को राजगद्दी पर बिठाने का फैसला किया जो कि नियमों के विरुद्ध था।

यह बात शिवाजी के बड़े बेटे संभाजी से छुपाई गई और मात्र 10 साल की आयु वाले राजाराम को गद्दी पर बिठाकर राज्याभिषेक कर दिया गया। शिवाजी का छोटा बेटा राजाराम सेनापति हंबीरराव की बहन का बेटा था।

सेनापति हंबीरराव को यह बात बहुत बुरी लगी क्योंकि नियमों के अनुसार शिवाजी के बड़े बेटे संभाजी महाराज को राजा बनाया जाना चाहिए था। सेनापति हंबीरराव ने भ्रष्ट मंत्रियों और लालची लोगों का साथ न देते हुए, साथ ही अपने भतीजे राजाराम की परवाह भी नहीं करते हुए धर्म के अनुसार संभाजी महाराज का समर्थन किया और उन्हें शिवाजी का असली उत्तराधिकारी बताते हुए राजगद्दी पर बिठाया।

इतना ही नहीं छत्रपति संभाजी महाराज के समक्ष उन सभी भ्रष्ट मंत्रियों को सेनापति हंबीरराव ने प्रस्तुत किया जो राज्य विरुद्ध कार्य कर रहे थे। इस बात से अनुमान लगायाा जा सकता हैं कि सेनापति हंबीरराव कितने कर्तव्यनिष्ठ थे।

औरंगजेब की भावनाओं से जुड़े बुरहानपुर पर जीत

मुग़ल आक्रमणकारी औरंगजेब भावनात्मक रूप से बुरहानपुर से जुड़ा हुआ था। औरंगजेब की मां मुमताजमहल की मृत्यु यहीं पर हुई साथ ही औरंगजेब की दोनों बहनों रोशनआरा और गौहरआरा, दोनों बेटों आजम और मुआजाम का जन्म भी इसी शहर में हुआ था।

व्यापारिक दृष्टि से यह शहर बहुत महत्वपूर्ण था। दक्षिण और उत्तर भारत को जोड़ने वाले बुरहानपुर में 17 व्यापारिक केंद्र थे।

इस समय मराठा सरदारों को अपने राज्य बढ़ाने और सैन्य व्यवस्था को ठीक से चलाने के लिए धन दौलत की जरूरत थी। छत्रपति संभाजी महाराज और सेनापति हंबीरराव मोहिते ने मिलकर बुरहानपुर पर हमला करने की योजना बनाई। ताकि अपार धन- दौलत और संपदा हासिल की जा सके। साथ ही मुगलों को यहां से उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया।

30 जनवरी 1681 का दिन बुरहानपुर और यहां के सूबेदार खानजहां के लिए काल बनकर आया। सेनापति हंबीरराव मोहिते ने संभाजी के साथ मिलकर हमला कर दिया। इससे पहले कि मुगल संभल पाते मराठी योद्धाओं ने मार-काट मचा दी। इस युद्ध से मराठाओं को बहुत बड़ा फ़ायदा हुआ। आर्थिक रूप से मजबूती के साथ यश और कीर्ति में भी बढ़ोतरी हुई।

17 मार्च 1683 के दिन रणमस्त खान जो कि औरंगजेब का सबसे करीबी और जांबाज सरदार था को पराजित कर दिया।

जब हंबीरराव मोहिते हो गए शहीद

1687 ईस्वी में हुए युद्ध में Hambirrao Mohite Talwar के दम पर रुस्तम खान को बुरी तरह से पराजित किया। यह युद्ध वाई में लड़ा गया।

16 मार्च 1687 के दिन तोप से निकला एक गोला सीधा हंबीरराव मोहिते को जाकर लगा और 57 वर्ष की आयु में वो रणभूमि में शहीद हो गए। 16 मार्च को “हंबीरराव मोहिते पुण्यतिथि” हर साल मनाई जाती हैं। हंबीरराव मोहिते समाधी तळबीड में बनी हुई हैं।

सेनापति हंबीरराव मोहिते की तलवार ( Hambirrao Mohite Talwar)

छत्रपति शिवाजी महाराज ने एक नियम निकाला था कि जो भी वीर सैनिक, मुगलों के 100 से अधिक सैनिकों को एक तलवार से मारेगा उसकी तलवार पर एक सुनहरा सितारा लगाया जाएगा।

जब अफ़ज़ल ख़ान ने शिवजी से युद्ध किया तो इस युद्ध में महज कुछ ही समय में सेनापति हंबीरराव मोहिते की तलवार ने 600 मुगलों को मौत के घाट उतारा दिया था। ये एक मात्र ऐसे। योद्धा थे जिनकी तलवार पर 6 सुनहरे सितारे लगे।

यह भी पढ़ें :- मराठा साम्राज्य की महान रानी ताराबाई मोहिते का इतिहास।

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