"तराइन का प्रथम युद्ध" (first battle of tarain) कारण और परिणाम

तराइन का प्रथम युद्ध पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी केमध्य लड़ा गया था। तराइन का प्रथम युद्ध 1192 ईस्वी में लड़ा गया था। तराइन के प्रथम युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की विजय हुई।

1186 ईस्वी में गजनवी वंश के अंतिम शासक को पराजित कर मोहम्मद गोरी ने लाहौर पर कब्जा कर लिया। धीरे-धीरे वह हिंदू बाहुल्य क्षेत्रों में अपना प्रभुत्व जमाने की तैयारी करने लगा। इस समय राजा जयचंद और आसपास के सभी राजपूत राजा एक थे। और यही वजह थी कि कोई भी दुश्मन एकाएक इन पर आक्रमण करने के बारे में सोचता भी नहीं था।

तराइन का प्रथम युद्ध कारण

तराइन का प्रथम युद्ध की परिस्थियाँ यहाँ से बनने लगी कि एक कुशल शासक के रूप में पृथ्वीराज चौहान हमेशा सुव्यवस्था और साम्राज्य विस्तार को लेकर सतर्क रहते थे। वह अपने साम्राज्य को पंजाब तक विस्तारित करना चाहते थे। यह वह समय था जब मोहम्मद गोरी ने पंजाब और उसके आसपास के क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में ले लिया।

1190 ईस्वी तक मोहम्मद गोरी ने पंजाब पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया, जिसकी राजधानी भटिंडा थी। अगर पंजाब पर अधिकार जमाना है तो इसके लिए मोहम्मद गौरी को युद्ध में पराजित करना ही होगा, यह बात दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान बहुत अच्छी तरह से जानते थे।
इस विचार के साथ ही पृथ्वीराज चौहान मोहम्मद गौरी से लोहा लेने के लिए पंजाब की तरफ एक विशाल सेना के साथ निकल पड़े। पृथ्वीराज चौहान ने 3 किले जीत लिए जिनमें हांसी, सरस्वती और सरहिंद शामिल थे।

अपने गुप्त चारों के माध्यम से पृथ्वीराज चौहान को एक सूचना मिलेगी अनहिलवाडा में कुछ विद्रोहियों ने विद्रोह कर दिया, जिसे दबाने के लिए पृथ्वीराज चौहान चल पड़े। वहीं दूसरी तरफ जब मोहम्मद गोरी को इस विद्रोह के बारे में पता चला और उसे सूचना मिली कि पृथ्वीराज चौहान विद्रोह को दबाने के लिए गए हैं, तो उन्होंने पुनः आक्रमण करके सरहिंद किले को जीत लिया। तराइन का प्रथम युद्ध कहाँ होगा इसकी जानकारी दोनों को नहीं थी।

पृथ्वीराज चौहान की विशाल सेना के सामने यह विद्रोह कुछ भी नहीं था। अनहिलवाडा के विद्रोह को कुचल दिया गया। जब पृथ्वीराज चौहान को मोहम्मद गौरी की करतूत के बारे में पता लगा तो उन्होंने संकल्प लिया कि अब वह मोहम्मद गौरी को पराजित करके ही दम लेंगे।

तराइन का प्रथम युद्ध परिणाम

(Tarain ka pratham yudh ke parinaam) अपनी सेना में जोश, जुनून और जज्बा विकसित कर पृथ्वीराज चौहान मोहम्मद गौरी की तरफ बढ़ने लगे। सरहिंद किले के समीप एक बहुत बड़ा मैदान था, जिसका नाम तराइन था। सन 1191 ईस्वी की बात है पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच तराइन के मैदान में एक बहुत भयंकर युद्ध हुआ। एक ऐसा युद्ध जिसने मोहम्मद गौरी को हकीकत से अवगत करवाया। तराइन के प्रथम युद्ध (तराइन का प्रथम युद्ध) में पृथ्वीराज चौहान की राजपूती सेना ने मोहम्मद गौरी की सेना को खदेड़ दिया।

मोहम्मद गौरी की सेना के वही सैनिक इस युद्ध में जिंदा रह सके जो युद्ध मैदान छोड़कर भाग गए। ऐसा कहा जाता है की गौरी की सेना को गाजर मूली की तरह काट दिया गया। आज भी तराइन का प्रथम युद्ध इसकी गवाही देता हैं।

मोहम्मद गौरी बुरी तरह घायल हो गया। वह इस अवस्था में नहीं था कि घोड़े पर बैठकर युद्ध मैदान से दूर जा सके। तभी एक सैनिक ने उन्हें घोड़े पर बिठाया और युद्ध मैदान से बाहर लाकर उसकी जान बचाई। जिस सेना का बादशाह घायल हो जाए उस सेना में खलबली मचना बहुत ही आम बात है और मोहम्मद गौरी की सेना के साथ भी यही हुआ। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे जान बचाई जाए।

पृथ्वीराज चौहान का हौसला देखिए उन्होंने 80 मील तक तुर्की सेना का पीछा किया लेकिन पृथ्वीराज चौहान के खौफ की वजह से वह पीछे मुड़कर देखे तक नहीं और लगातार भागते रहे।

इस तरह तराइन के प्रथम युद्ध (तराइन का प्रथम युद्ध) में पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को पराजित कर दिया। तराइन के प्रथम युद्ध में कौन जीता था, इसकी जानकारी आपको हो चुकी हैं। इस युद्ध में विजय के पश्चात पृथ्वीराज चौहान को लगभग 7 करोड रुपए की धन संपदा प्राप्त हुई, जिसे उन्होंने अपने बहादुर राजपूत सैनिकों में बांट दिया। धन संपदा के साथ साथ पृथ्वीराज चौहान की ख्याति संपूर्ण भारत में फैल गई।

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