मिहिर भोज का इतिहास गुर्जर-प्रतिहार राजवंश के लिए स्वर्णिम काल माना जाता हैं। मिहिर भोज को भोज प्रथम के नाम से भी जाना जाता है। मिहिर भोज गुर्जर प्रतिहार वंश के सबसे लोकप्रिय महान और प्रतापी राजाओं में शामिल थे। मिहिर भोज के पिता का नाम रामभद्र था। मिहिर भोज कन्नौज के शासक थे।
इन्होंने लगभग 50 वर्षों तक शासन किया था। मिहिर भोज के साम्राज्य की बात की जाए तो भारत की उत्तर दिशा में हिमालय, दक्षिण दिशा में नर्मदा, पूर्व दिशा में बंगाल और पश्चिम में सतलुज तक फैला हुआ था। साम्राज्य को देखकर राजा मिहिर भोज की महानता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
मिहिर भोज के साम्राज्य में आधुनिक भारत के हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश शामिल थे।
अगर आप यह जानना चाहते हैं कि मिहिर भोज कौन थे? मिहिर भोज का इतिहास, मिहिर भोज की कहानी या फिर ऐसा कहें कि मिहिर भोज की जीवनी, मिहिरभोज प्रतिहार जयंती तो इस लेख को अंत तक पढ़ें।
मिहिर भोज का इतिहास (History Of Mihir Bhoj)
पूरा नाम- मिहिर भोज प्रतिहार।
उपनाम या कुल नाम- भोज।
अन्य नाम- आदि वराह।
जन्म वर्ष- 836 ईस्वी।
मृत्यु वर्ष- 885 ईस्वी।
मृत्यु स्थान– नर्मदा।
पिता का नाम- रामभद्र।
पत्नी का नाम- चंद्रभट्टारिका।
पुत्र का नाम- महेंद्र पाल प्रथम।
मिहिर भोज की जयंती (Mihir Bhoj jayanti)- प्रतिवर्ष विक्रम संवत भादो मास की तृतीया (शुक्ल पक्ष) को मिहिर भोज की जयंती मनाई जाती हैं।
शासनकाल- लगभग 50 वर्ष।
उत्तराधिकारी- महेंद्र पाल प्रथम।
मिहिर भोज किस के उपासक माने जाते हैं- भोज प्रथम या मिहिर भोज को भगवान विष्णु के वराह अवतार का उपासक माना जाता है।
इनके नाम पर जगह- महरौली नामक जगह इन के नाम पर हैं।
आज से लगभग ग्यारह सौ वर्ष पूर्व कन्नौज में राजा मिहिर भोज का शासन था। गुर्जर प्रतिहार वंश के सबसे महान और प्रतापी राजाओं में शामिल राजा मिहिर भोज ने लगभग 50 वर्षों तक शासन किया। राजा मिहिर भोज भगवान विष्णु के भक्त थे इनके समय जारी किए गए सिक्कों में इन्हें “आदि वराह” भी माना गया है।
राजा मिहिर भोज ने सिक्कों पर भगवान विष्णु के आदि वराह अवतार को उत्तीर्ण करवाया। विशाल साम्राज्य के राजा भोज प्रथम का राज्य पश्चिम बंगाल से मुल्तान तक तथा कश्मीर से कर्नाटक तक फैला हुआ था, इन्हें भगवान शिव का परम भक्त माना जाता है।
अगर आप स्कंध पुराण का अध्ययन करेंगे तो प्रभास खंड में गुर्जर प्रतिहार राजवंश के सम्राट मिहिर भोज के जीवन के बारे में आपको जानकारी मिलेगी। राजा मिहिर भोज के बारे में कहा जाता है कि लगभग 50 वर्ष तक शासन करने के पश्चात उन्होंने अपने पुत्र महेंद्र पाल प्रथम को राज्य सिंहासन पर बिठाया और स्वयं ने संयास ले लिया। आगे का जीवन यापन करने के लिए सदा के लिए उपवन में चले गए।
851 ईसवी में एक अरबी यात्री और इतिहासकार सुलेमान भ्रमण के लिए भारत आया और इसी दौरान उन्होंने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था “सिलसिलीउत तवारीख” । अरबी यात्री और इतिहासकार सुलेमान ने इस पुस्तक में गुर्जर प्रतिहार वंश के सम्राट मिहिर भोज को इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु बताया है।
“सिलसिलीउत तवारीख” नामक पुस्तक में अरब यात्री सुलेमान ने मिहिर भोज की विशाल सेना के पराक्रम और शौर्य की भी तारीफ की है साथ ही आगे लिखा कि सम्राट मिहिर भोज की सीमाएं दक्षिण में राजकुटों के राज्य, पूर्व में बंगाल के पाल शासक और पश्चिम में मुल्तान के शासकों की सीमाओं तक फैली हुई थी।
सम्राट मिहिर भोज की सेना
किसी भी राजा या महाराजा के सम्बन्ध में किसी एक स्त्रोत से साक्ष्य जुटाना मुश्किल होता है। बगदाद (इराक) प्राचीन इतिहासकारों में शामिल अल मसूदी ने 915 ईसवी में भारत भ्रमण के दौरान एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था “मरुजुल जुहाब”, इस पुस्तक में अल मसूदी ने महान सम्राट मिहिर भोज और उनकी सेना के पराक्रम के बारे में लिखा है।
इतिहासकार अल मसूदी के अनुसार मिहिर भोज की सेना में 36 लाख सैनिक शामिल थे जो प्रतापी, पराक्रमी, संगठित और ओजस्वी थे। इनकी राजशाही सेना का निशान वराह था।
इनके समकालीन मुस्लिम आक्रमणकारियों के मन में राजा मिहिर भोज का बड़ा खौफ था। मुस्लिम आक्रमणकारी वराह यानी सूअर से नफरत करते थे। राजा मिहिर भोज की सेना में सभी जातियों धर्म और वर्ग के लोग शामिल थे जो राष्ट्र की रक्षा के लिए निसंकोच हथियार उठाते और इस्लामिक आक्रांता ओं से युद्ध करते थे। इस्लामिक आक्रमणकारियों या आक्रांता ओं के लिए कहा जाता है कि वह मिहिर भोज के नाम से ही थरथर कांप उठते थे।
गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज के युद्ध
इस लेख में सबसे पहले हम बात करेंगे मिहिर भोज के उन मित्रों की जो किसी भी कीमत पर उनका साथ देते थे। काबुल का ललिया शाही, कश्मीर का उत्पल वंशी राजा अवंती वर्मन, नेपाल के राजा राघव देव और आसाम के राजा मुख्य थे।
सम्राट मिहिर भोज के शत्रुओं की बात की जाए तो पाल वंश के राजा देव पाल दक्षिण के राष्ट्रकूट राजवंश के राजा अमोघवर्षा अरबी खलीफा मौतसिम वासिक, मुत्वक्कल, मौत्मीदाद, मुंतशिर आदि। उस समय अरब के खलीफा इमरान बिन मूसा को सिंध का शासक नियुक्त किया गया जहां पर अरबों का अधिकार था।
सम्राट मिहिर भोज ने बंगाल के पाल वंश के शासक देवपाल के पुत्र नारायण पाल को युद्ध में पराजित करके उत्तरी बंगाल को अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया, इतना ही नहीं राष्ट्रकूट के शांतिप्रिय और कमजोर शासक माने जाने वाले अमोघ वर्ष को भी राजा मिहिर भोज ने पराजित करते हुए उनके साम्राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
इमरान बिन मूसा को पराजित करके समस्त सिंध पर राजा मिहिर भोज का अधिकार हो गया। सम्राट मिहिर भोज के डर से अरबी आक्रांता अपनी जान बचाने के लिए अनमहफूज नामक गुफाएं बनवाई, ताकि जब भी उन पर आक्रमण होता वह इनके अंदर छुप जाते। मंसूरा और मुल्तान नामक स्थान सिंध के पास इसी वजह से बच पाए।
जब अन्य महफूज नामक गुफा के बारे में सम्राट मिहिर भोज को पता चला तो उन्होंने इस स्थान पर कई बड़े सैनिक अभियान किए और अपना कब्जा कर लिया।
ऐसे ही सम्राट मिहिर भोज को महान नहीं कहा जाता है धीरे धीरे उनका क्षेत्राधिकार बढ़ता गया और इन सब युद्धों के पश्चात गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य की सीमाएं पश्चिम में सिंध नदी से सैकड़ों मील पश्चिम तक पहुंच गई। इस प्रकार भारत को कई शताब्दियों तक अरबों के बर्बर धर्मांधता अत्याचारी आक्रमणों से छुटकारा मिल गया।
इतिहास में उल्लेख मिलता है कि सम्राट मिहिर भोज के राज्य की सीमाएं काबुल से रांची व असम तक, हिमालय से नर्मदा नदी, काठियावाड़ से बंगाल तक सुदृढ़ और सुरक्षित थी।
सम्राट मिहिर भोज के सिक्के
भगवान विष्णु के अवतार आदि वराह का चित्र सम्राट मिहिर भोज के सिक्कों पर देखने को मिलता है। भक्त प्रहलाद को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने वराह का रूप धारण किया था और राक्षस हिरणाकुश को मार गिराया था।
गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज “आदि वराह” के नाम से भी जाना जाता है। मुस्लिम आक्रांता अर्थात मलेछों को मारकर अपनी मातृभूमि की रक्षा करने वाले मिहिर भोज को इसी वजह से “आदी वराह” नाम से जाना जाता है क्योंकि जिस तरह भगवान विष्णु ने राक्षस हिरणाकुश को मारकर पृथ्वी की रक्षा की और जनकल्याण किया उसी तरह मल्लेच्छों को मार कर मिहिर भोज ने भी यह काम किया।
कला प्रेमी के रूप में सम्राट मिहिर भोज
एक महान शासक होने के साथ-साथ सम्राट मिहिर भोज विद्वान और विद्या तथा कला का संरक्षक माने जाते हैं। उनके दरबार में कवियों एवं विद्वानों का विशेष महत्व था। अगर हम आइना ए अकबरी का अध्ययन करें तो उसमें साफ तौर पर लिखा हुआ है कि सम्राट मिहिर भोज के दरबार में 500 विद्वान थे।
मिहिर भोज के दरबार में नित्य रूप से रहने वाले विद्वानों में जो कि दरबारी कवि भी थे उनमें धनपाल, भास्कर भट्ट तथा दामोदर मिश्र मुख्य थे। कला प्रेमी भोज प्रथम के लिए कहा जाता है कि जब भी उन्हें किसी कवि की कविता या श्लोक अच्छा लगता वह उन पर लाखों सोने की मुद्राएं लूटा देते थे।
“भोज प्रबंधनम” नाम से उनकी आत्मकथा लिखी हुई पुस्तक भी मौजूद है।
सम्राट मिहिर भोज के बारे में कहा जाता है कि वह बहुत बड़े विद्वान थे। उन्हें 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त थी। अलग-अलग विषयों पर उन्होंने 84 ग्रंथ लिखे जिनमें आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, ज्योतिष, धर्म, कला, विज्ञान, योग एल, नाट्य शास्त्र, संगीत, दर्शन, राजनीति शास्त्र आदि प्रमुख है।
सम्राट मिहिर भोज द्वारा रचित ग्रंथ निम्नलिखित है- योग्यसूत्रवृत्ति, विद्या विनोद, भोजचंपू, शब्दानुशासन, श्रृंगार मंजरी, कृत्यकल्पतरु, राजमृडाड, प्राकृत व्याकरण, आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश, कूर्मशतक, युक्तिकल्पतरु, सरस्वती कंठाभरण, राजकार्ताड और सिद्धांत संग्रह आदि।
सम्राट मिहिर भोज द्वारा करवाए गए मुख्य निर्माण कार्य
लगभग 50 वर्षों तक शासन करने वाले सम्राट मिहिर भोज को ऐसे ही महान नहीं माना जाता है और ऐसे ही उनके शासन को स्वर्णिम युग नहीं माना जाता है। इस दौरान उन्होंने धार्मिक कार्यों के साथ-साथ विकास के भी कई कार्य किए।
राजधानी धार को कला एवम विध्या के केंद्र के रूप में विकसित करने का संपूर्ण से भोज प्रथम अर्थात मिहिर भोज को जाता है। इसके अतिरिक्त सम्राट मिहिर भोज ने सरस्वती मंदिर, केदारेश्वर, रामेश्वर, सोमनाथ आदि मंदिरों का निर्माण करवाया था। भोज नगर एवं भोजसेन नामक तालाब का निर्माण मिहिर भोज प्रथम ने करवाया था।
विभिन्न अभिलेखों के अनुसार मिहिर भोज के नाम
जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा मिहिर भोज प्रथम को प्रभास एवं आदि वराह नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त ग्वालियर अभिलेख के में इन्हें मिहिर भोज, दौलतपुर अभिलेख में प्रभास, ग्वालियर अभिलेख में आदि वराह नामों से जाना जाता है।
सम्राट मिहिर भोज की मृत्यु कैसे हुई?
लगभग 50 वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन करने के पश्चात सम्राट मिहिर भोज ने उनके पुत्र महेंद्रपाल प्रथम को राज्य की बागडोर सौंप दी और उन्होंने सन्यासी का रूप धारण कर जंगल की तरफ निकल पड़े। सम्राट मिहिर भोज की मृत्यु सामान्य रूप से 885 ईस्वी में हुई।
सम्राट मिहिर भोज विवाद क्या है?
स्वर्णिम इतिहास वाले सम्राट मिहिर भोज के नाम पर दादरी में एक इंटर कॉलेज है। इसी को लेकर इस कॉलेज में उनकी एक प्रतिमा लगने वाली है जिसका उद्घाटन उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी द्वारा किया जाना है।
सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा को लेकर गुर्जर और राजपूत आमने-सामने हो गए। 22 सितंबर 2021 को पढ़ने वाली इस प्रतिमा के अनावरण को लेकर गुर्जरों का यह मानना है कि सम्राट मिहिर भोज गुर्जर शासक थे वही राजपूत समाज का कहना है कि वह प्रतिहार वंश के शासक थे अर्थात वह राजपूत थे।
दोस्तों किसी भी समाज से पहले हमें अपने धर्म के बारे में सोचना चाहिए। वह एक बहुत बड़े हिंदू सम्राट थे और उन्हें हिंदू ही रहने देना चाहिए। सम्राट मिहिर भोज को लेकर जिस विवाद ने जन्म लिया है वह आधारहीन है। किसी भी महान राजा या शासक को जातियों में बांटना उनकी प्रतिष्ठा को क्षति पहुंचाने केसमान है। जब मिहिर भोज ने 50 वर्षों तक शासन किया तब वह किसी विशेष समाज से नहीं होकर संपूर्ण क्षेत्र का नेतृत्व कर रहे थे।
मिहिर भोज का ग्वालियर अभिलेख
मिहिर भोज का ग्वालियर अभिलेख या फिर यह कहे की मिहिरकुल की ग्वालियर प्रशस्ति क्या है? आपकी जानकारी के लिए बता दें कि मिहिर भोज का ग्वालियर अभिलेख एक शिलालेख है जो क्षतिग्रस्त अवस्था में विद्यमान है।
इस शिलालेख पर संस्कृत भाषा में मातृछेत द्वारा सूर्य मंदिर के निर्माण का उल्लेख किया गया है। ग्वालियर अभिलेख की खोज अलेक्जेंडर कनिंघम ने की। मिहिर भोज का ग्वालियर अभिलेख श्लोक और प्राचीन उत्तरी गुप्त लिपि के रूप में लिखा गया है।
मिहिर भोज का ग्वालियर अभिलेख की विशेषता
1 बालादित्य नामक व्यक्ती ने इस प्रशस्ति को लिखा था।
2 इस प्रशस्ति पर कोई भी तिथि अंकित नहीं है।
3 ग्वालियर से 1 किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में स्थित सागर नामक स्थान पर यह प्रशस्ति मिली थी।
4 यदि आप प्रतिहार वंश के शासकों की राजनीतिक उपलब्धियों और वंशावलियों के बारे में जानना चाहते हैं तो मिहिर भोज का ग्वालियर अभिलेख सही और सटीक जानकारी प्राप्त करने का मुख्य साधन है।
5 क्या प्रशस्ति विशुद्ध संस्कृत में लिखा गया है।
6 अगर इस प्रशस्ति के लेखक की लिपि की बात की जाए तो उत्तरी ब्राह्मी लिपि है।
7 इस प्रशस्ति में कुल मिलाकर 17 श्लोक है।
8 मिहिर भोज के ग्वालियर अभिलेख का अध्ययन किया जाए तो इसमें आप देखेंगे कि राजाओं के नाम के साथ उनकी उपलब्धियों का वर्णन भी किया गया है।
यह भी पढ़ें-