महाराणा विक्रमादित्य का इतिहास || History Of Maharana Vikramaditya
महाराणा विक्रमादित्य सिंह, रतन सिंह द्वितीय की मृत्यु के पश्चात मेवाड़ के उत्तराधिकारी थे। मेवाड़ के सरदारों और उमराव ने मिलकर रणथंभोर में रहने वाली हाड़ी कर्मवती को मेवाड़ में आमंत्रित किया, क्योंकि मेवाड़ के महाराणा रतन सिंह द्वितीय की मृत्यु के पश्चात महाराणा विक्रमादित्य ही मेवाड़ के सच्चे उत्तराधिकारी थे।
विक्रम संवत के अनुसार 1581, हिजरी संवत के अनुसार 938 जबकि अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार सन 1531 ईस्वी में महाराणा विक्रमादित्य मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठे।
महाराणा विक्रमादित्य का इतिहास (History Of Maharana Vikramaditya)
नाम- महाराणा विक्रमादित्य सिंह (Maharana Vikramaditya singh).
पिता का नाम- महाराणा सांगा (महाराणा संग्राम सिंह).
माता का नाम- महारानी हाड़ी कर्मावती (कर्णावती).
राज्याभिषेक- 1531 ईस्वी।
राज्य- मेवाड़।
धर्म- हिन्दू सनातन।
वंश- सिसोदिया राजवंश।
मृत्यु वर्ष- 1535 ईस्वी।
जब महाराणा विक्रमादित्य मेवाड़ के राजा बने तब वह नादान अवस्था में थे। महाराणा विक्रमादित्य के बारे में कहा जाता है कि यह हर समय मजाकिया अंदाज में रहते थे। यही वजह थी कि सरदार और सामंत इन पर ज्यादा विश्वास नहीं करते थे। इन्हें राजपूत योद्धाओं से ज्यादा पाले हुए पहलवानों पर विश्वास था।
राज्य के सरदारों और उमराव को जब लगने लगा कि यहां पर रहने से उनका उपहास होता है, इसलिए धीरे-धीरे वह अपने ठिकानों पर चले गए। इन हरकतों को देखकर मांजी हाड़ी ने महाराणा विक्रमादित्य को अपनी आदतों में सुधार का सुझाव दिया लेकिन कुछ भी असर नहीं हुआ।
सुल्तान बूंदी के राव सूरजमल का पुत्र था। सूरजमल ने ही महाराणा रतन सिंह द्वितीय को मौत के घाट उतारा था और इसी युद्ध में राव सूरजमल की भी मृत्यु हो गई थी। महाराणा विक्रमादित्य ने कम आयु होते हुए भी सुल्तान का राजतिलक किया।
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चित्तौड़ पर गुजरात के शासक बहादुर शाह की प्रथम चढ़ाई (1532 ईस्वी)
आसपास के सभी राजा महाराजाओं को यह पता लग चुका था कि महाराणा विक्रमादित्य अयोग्य है। महाराणा विक्रमादित्य की कमजोरी का फायदा उठाने के लिए आसपास के कई राजा चित्तौड़ पर आक्रमण करने की फिराक में थे। गुजरात का बादशाह बहादुरशाह भी उनमें से एक था। महाराणा विक्रमादित्य की कमजोर हालत देखकर, बहादुरशाह चित्तौड़ पर चढ़ाई करने के उद्देश्य से उसके सरदार “मोहम्मद आसेरी” को सेना सहित भेजा।
महाराणा विक्रमादित्य (Maharana Vikramaditya) से परेशान होकर नरसिंह देव (महाराणा सांगा का भतीजा) और चंदेरी का राजा मेदिनीराय बहादुर शाह से जाकर मिल गए। इस समय इन्हें घर का भेदी कहा जाता था। गुजरात के बादशाह बहादुर शाह की इस कार्यवाही को देखते हुए महाराणा विक्रमादित्य ने अपने दूतों के जरिए संदेश भिजवाया कि मेवाड़ में मांडू के अधीनस्थ जितने भी जिले हैं उन्हें पुनः लौटा दिया जाएगा लेकिन बहादुर शाह नहीं माना।
नीमच में दोनों सेनाओं का आमना सामना हुआ। बहादुर शाह की विशाल सेना के सामने महाराणा विक्रमादित्य की सेना भागकर चित्तौड़ के किले में जा पहुंची और जितने भी सहयोगी सरदार थे, वह अपनी-अपनी जागीरो में चले गए। इस तरह बहादुरशाह की सेना ने चित्तौड़ को चारों तरफ से घेर लिया।
महाराणा विक्रमादित्य के कुछ सहयोगी चित्तौड़ से सीधे दिल्ली जा पहुंचे और वहां पहुंच कर हुमायूं से मदद मांगी। हुमायूं महाराणा विक्रमादित्य की सहायता करने के लिए राजी हो गया और अपनी सेना के साथ दिल्ली से निकल पड़ा। जब हुमायूं ग्वालियर पहुंचा, तब उसको बहादुर शाह की तरफ से एक पत्र मिला जिसमें लिखा था ” मैं जिहाद पर हूं, तुम महाराणा विक्रमादित्य की सहायता करोगे तो भगवान के सामने की क्या जवाब दोगे?
इस समय मुस्लिमों में गजब की एकता थी हुमायूं और बहादुर शाह आपस में मिल गए, जिसकी वजह से हुमायूं ग्वालियर में ही रुक गया और मेवाड़ की सहायता किए बिना ही वापस जाने लगा। हुमायूं और बहादुर शाह के एक होने की खबर जब महाराणा विक्रमादित्य को लगी तो वह पुनः लौट गए।
दूसरी तरफ बहादुर शाह की गुजराती सेना ने चित्तौड़ को घेर लिया। 9 फरवरी 1533 ईस्वी में “भैरव पोल” नामक दरवाजे पर इन्होंने अपना अधिकार कर लिया। वीर मेवाड़ी सैनिकों ने गुजरात की सेना को यहां से आगे नहीं बढ़ने दिया। गुजरात का शासक बहादुरशाह भी सैनिकों के साथ यहां पर आ गया। जब हालात बिगड़ने लगे तो महारानी हाड़ी कर्मावती ने बहादुर शाह के पास संदेश भेजा की युद्ध को विराम दिया जाए।
कुछ शर्तों के साथ बहादुर शाह ने युद्ध रोक दिया। इन शर्तों में मालवा का जो प्रदेश पहले मेवाड़ के अधिकार क्षेत्र में था, उसे पुनः बहादुर शाह को सौंप दिया गया जबकि हाथी, घोड़े और नगद देकर बहादुर शाह को शांत किया।
इतिहासकार बताते हैं कि 24 मार्च 1533 को बहादुर शाह चित्तौड़ छोड़कर गुजरात की तरफ लौट गया। मेवाड़ पर आई इस भयंकर विपदा के बाद भी महाराणा विक्रमादित्य के स्वभाव पर कोई विशेष फर्क देखने को नहीं मिला, जिसके चलते नाराज होकर कई सरदार गुजरात के बादशाह बहादुर शाह की शरण में चले गए।
चित्तौड़ पर बहादुर शाह की पुनः चढ़ाई (1534 ईस्वी)-
1 वर्ष भी नहीं बीता था कि गुजरात का शासक बहादुर शाह ने पुनः चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी। चित्तौड़ का किला जीतकर बहादुर शाह अपने सेनापति रूमिखां को देना चाहता था।बहादुर शाह बहुत महत्वकांक्षी व्यक्ति था वह दिल्ली पर भी अधिकार करना चाहता था और इसी इरादे से उसने तातार खां को 40000 सैनिकों के साथ हुमायूं के राज्य में लूटपाट के इरादे से भेजा।
तातार खां कि सेना बड़ी थी, उसने बयाना और आसपास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। जब यह खबर दिल्ली के बादशाह हुमायूं के पास पहुंची तो वह बहुत क्रोधित हुआ और बहादुरशाह की सेना का सामना करने के लिए उसने अपने भाई मिर्जा हिंदाल को सेना के साथ भेजा।
तातार खां वीरगति को प्राप्त हुआ। बहादुरशाह के द्वारा चित्तौड़ पर पुनः आक्रमण करने की खबर चित्तौड़ पहुंच गई। बहादुर शाह को प्रारंभ से ही यह लगता था कि चित्तौड़ के किले को जीतना इतना आसान नहीं है लेकिन आपने एक कहावत सुनी होगी कि “घर का भेदी लंका ढाए”.
चित्तौड़गढ़ के साथ भी यही हो रहा था। जब हाड़ी रानी कर्मावती को यह आभास हो गया कि अब इस किले को नहीं बचाया जा सकता है, तो उसने सभी सरदारों को बुलाया और उन्हें कहा कि मैं यह किला आप सबके हाथों में सौंप रही हूं, तुम अगर चाहो तो इसकी कीर्ति का मान रख लो या फिर शत्रु के हाथों पराजित होकर अपयश प्राप्त करो।
चित्तौड़गढ़ के ज्यादातर सरदारों के मन में महाराणा विक्रमादित्य (Maharana Vikramaditya) के प्रति द्वेष की भावना थी जो उन्होंने निकाल दी और यह निश्चय लिया कि जीते जी चित्तौड़ को मुसलमानों के हाथों में नहीं जाने देंगे।
आसपास की जागीरों के जागीरदार और सरदार चित्तौड़ के किले पर एकत्रित हुए जिनमें रावत बाघसिंह, हाडा अर्जुन (देवलिया, प्रतापगढ़), रावत सत्ता, सोनगरा माला, डोडिया भाणा, भंवर दास सोलंकी, रावत नरबद, संजय झाला और सिंहा झाला आदि।
महाराणा विक्रमादित्य के प्राणों की रक्षार्थ सरदारों का निर्णय
महाराणा विक्रमादित्य और उनके छोटे भाई उदयसिंह के प्राणों की रक्षा करने के लिए सभी सरदारों ने मिलकर निर्णय लिया कि दोनों भाइयों को उनके ननिहाल बूंदी भेज दिया जाए। इसके पीछे मुख्य वजह यह थी कि बहादुरशाह विशाल सेना के साथ चित्तौड़ का गढ़ जीतने के लिए निकला था, उसका उद्देश्य बड़ा था वह चित्तौड़ के साथ-साथ दिल्ली पर भी अपना अधिकार जमाना चाहता था।
सभी सरदारों ने मिलकर किले का निरीक्षण किया और निष्कर्ष निकाला कि लड़ने और खाने-पीने का पर्याप्त सामान नहीं है, यह यथाशीघ्र समाप्त हो जाएगा। ढंग से युद्ध करने के लिए कम से कम तीन से चार महीनों की राशन सामग्री और युद्ध सामग्री का होना जरूरी हैं, जो कि खजाने में नहीं है। अतः विपरीत परिस्थितियों को देखते हुए और चित्तौड़ के महाराणा विक्रमादित्य की जान बचाने के लिए उन्हें भेष बदलवाकर बूंदी भेज दिया।
युद्ध में रावत वाघसिंह का प्रतिनिधित्व-
महाराणा विक्रमादित्य के बूंदी चले जाने के पश्चात रावत वाघसिंह ने उनका पद ग्रहण किया। क्योंकि सभी सरदारों का मुखिया इन्हें बनाया गया था इसलिए निर्णय लिया गया कि युद्ध में सबसे आगे यही रहेंगे। रावत वाघसिंह सबसे आगे सेना का नेतृत्व करते हुए स्वयं किले की प्रथम पोल, जैसे भैरवपोल के नाम से जाना जाता है वहां पर बाहर की तरफ़ मोर्चा संभाला जबकि अंदर की तरफ भैरव दास सोलंकी ने मोर्चा संभाला।
हनुमान पोल की जिम्मेदारी सज्जा झाला और सिन्हा झाला को दी गई। गणेश पोल की जिम्मेदारी भाणा (डोडिया) को दी गई। इस तरह सभी राजपूत योद्धाओं ने पूरे किले की मोर्चाबंदी की। दूसरी तरफ जब हुंमायूं को यह बात पता लगी की बहादुरशाह चित्तौड़ पर अधिकार करना चाहता है तो उसने अपनी सेना को बहादुर शाह के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा।
जब यह खबर बहादुर शाह को लगी तो वह संशय में पड़ गया कि पहले चित्तौड़ जीता जाए या हुमायूं का सामना किया जाए। इस पर वरिष्ठ मुस्लिम सरदारों ने बहादुर शाह को सुझाव दिया कि हुमायूं मुसलमान है अतः वह हमारे ऊपर आक्रमण नहीं करेगा। खासकर उस परिस्थिति में कतई हमारे ऊपर आक्रमण नहीं करेगा जब हम हिंदुओं को मौत के घाट उतार रहे होंगे। इसलिए हमें पहले चित्तौड़ विजय करनी चाहिए।
देखते ही देखते बहादुर शाह ने चित्तौड़ के किले को चारों तरफ से घेर लिया। वहीं दूसरी तरफ चित्तौड़ के वीर मेवाड़ी राजपूत शासक, सरदार बहादुर शाह की सेना पर बिजली की तरह टूट पड़े। बहादुर शाह की सेना विशाल थी, साथ ही उनके पास गोला-बारूद भी थे।
जब बहादुर शाह को लगा कि राजपूत सैनिकों को हराना इतना आसान नहीं है, तो उसने एक सुरंग बनाई और उसमें बारूद भर दिया। कहते हैं कि बीकाखोह की ओर किले की 45 हाथ लंबी दीवार उस बारूद से ध्वस्त हो गई।
इस विनाशक हमले में अर्जुन हाडा अपनी सेना के साथ वीरगति को प्राप्त हुए साथ ही बहादुर शाह की सेना को किले के भीतर प्रवेश करने का रास्ता मिल गया।
इस तरह इस भयंकर युद्ध में चित्तौड़ के राजपूत सैनिकों को भारी क्षति हुई। 9 मार्च 1535 ईस्वी को लड़े गए इस युद्ध में 32000 राजपूत सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए, जबकि 13000 स्त्रियों ने महारानी हाड़ी कर्मावती के साथ जोहर कर लिया।
चित्तौड़ पर पुनः महाराणा विक्रमादित्य का अधिकार
हजारों की तादाद में राजपूत सैनिकों और अपनी माता कर्मावती के वीरगति को प्राप्त होने के बाद महाराणा विक्रमादित्य अपने ननिहाल बूंदी से पुनः चित्तौड़ लौट आए। अपनी एक छोटी सी सेना के साथ चित्तौड़ पर पुनः अधिकार कर लिया। जब यह बात गुजरात के मुसलमानों को पता लगी तो उन्होंने कोई कार्यवाही नहीं की, क्योंकि वह चित्तौड़ के राजपूत सैनिकों की वीरता जानते थे।
इतना ही नहीं बहादुर शाह को हुमायूं का भय था।मेवाड़ प्रदेश में इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी महाराणा विक्रमादित्य अपनी आदतों से बाज नहीं आए जिसका खामियाजा मेवाड़ को भुगतना पड़ा कई वरिष्ठ और नामी सरदार और जमींदार उनका साथ छोड़ कर चले गए।
महाराणा विक्रमादित्य की हत्या
महाराणा विक्रमादित्य की खराब आदतों के कारण मेवाड़ राज्य की व्यवस्था पूरी तरह गड़बड़ा गई। मौका पाकर बनवीर (महाराणा सांगा के बड़े भाई पृथ्वीराज की पासवान का बेटा) चित्तौड़ आ पहुंचा। चित्तौड़ आकर बनवीर महाराणा विक्रमादित्य के समर्थकों से मिला और राज्य के कार्यों में अपना प्रभाव दिखाने लगा। धीरे धीरे बनवीर का पद बढ़ गया और वहां मुख्य सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया।
महाराणा सांगा के बड़े भाई पृथ्वीराज की पासवान पुतलादे का पुत्र बलवीर मेवाड़ से निकाले जाने के बाद गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर के पास रह रहा था बदले में सुल्तान ने उसे वागड़ का प्रदेश जागीर में दिया। बनवीर बदला लेने के लिए महाराणा विक्रमादित्य की हत्या करना चाहता था। 1535 ईस्वी में बनवीर ने महाराणा विक्रमादित्य को मौका पाकर मौत के घाट उतार दिया।
महाराणा विक्रमादित्य की हत्या करने के पश्चात बनवीर महाराणा विक्रमादित्य के छोटे भाई उदय सिंह को भी मारकर मेवाड़ का शासक बनना चाहता था।
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