चेर राजवंश का इतिहास दक्षिण भारत से जुड़ा हुआ है. जो आधुनिक कोंकण, मालाबार का तटीय क्षेत्र तथा उत्तरी त्रावणकोर एवं कोचीन तक फैला हुआ था. चेर राजवंश तमिलकम (दक्षिण भारत) के तीन मुख्य राजवंशों में से एक था.
इस राजवंश के शासकों ने तमिलनाडु तथा केरल के कुछ हिस्सों पर राज्य किया था. चेर का शाब्दिक अर्थ “प्राचीन तमिल में एक पहाड़ी की ढलान” से है.
चेर राजवंश के शासकों के बारे में कहा जाता है कि इन्होंने 8 वीं शताब्दी से लेकर 12 वीं शताब्दी तक शासन किया था. चेर राजवंश का प्रथम शासक उदियन जेरल को माना जाता हैं.
इस लेख में हम चेर राजवंश का इतिहास और राजधानी की चर्चा करेंगे।
चेर राजवंश का इतिहास
प्रथम चेर शासक:- उदियन जेरल.
चेर वंश की राजधानी- कीज़न्थुर-कंडल्लूर और करूर वांची.
चेराें का राजकीय चिन्ह- धनुष.
शासनकाल- चौथी से पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व और 8 वीं से 12 वीं शताब्दी के मध्य.
चेर राजवंश का अंतिम शासक- पेरुन जेरल इंरनपोरी.
चेर राजवंश के बारे में प्रारंभिक जानकारी ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेखित चेरपादः से प्राप्त होती है. “संगम साहित्य” और “रघुवंश महाकाव्य” जोकि कवि कालिदास द्वारा लिखे गए थे इनसे भी चेर राजवंश के बारे में ऐतिहासिक जानकारी मिलती है. इसके अतिरिक्त महाभारत, रामायण, सम्राट अशोक महान के शिलालेख भी इस संबंध में जानकारी देते हैं.
चेर राजवंश का इतिहास देखा जाए तो इस वंश के शासकों ने दो अलग अलग समय पर शासन किया था. जिनमें से एक चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व तक जबकि बाद में इन्होंने आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी ईस्वी के बीच शासन किया था. मौर्य वंश के महान शासक सम्राट अशोक के शिलालेखों में इस राजवंश को कई नामों से संबोधित किया गया है जिनमें मलैयर, पुरैयार, बनारवर, बिल्लवर, केरलपुत्र, कुट्टवर, कुडावार और केरलपुत्र आदि मुख्य नाम है.
इतिहासकारों के अनुसार चेर द्रविड़ जाती से संबंध रखते थे लेकिन बाद में इन्होंने आर्य वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय वर्ण का स्थान प्राप्त किया. साथ ही अन्य क्षत्रिय राजाओं के परिवार में वैवाहिक संबंध स्थापित किए. चेर राजवंश पांड्या साम्राज्य की उत्तर और पश्चिमी में स्थित था.
महाभारत के युद्ध के समय यही एकमात्र ऐसा राजवंश था जिसने युद्ध में भाग नहीं लिया क्योंकि इन्होंने महाभारत के युद्ध में भाग लेने वाले सभी योद्धाओं और सैनिकों के लिए भोजन व्यवस्था का जिम्मा उठाया था. इसी बड़ी जिम्मेदारी की वजह से इस वंश को “महाभोजक” की संज्ञा दी गई.
चेर राजवंश का इतिहास बताता हैं कि इसके प्रथम शासक उदियन जेरल के बाद उसका बेटा नेदुन जेरल इस राजवंश का अगला शासक बना. नेदुन जेरल विस्तार वादी सोच का राजा था इस वजह से पड़ोसी देशों पर आक्रमण किया और व्यापारियों को बंदी बना लिया. उन्हें मुक्त करने की एवज में उनके परिवारों से अपार धन हासिल किया. इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए इनका सामना चोल शासकों के साथ हुआ और इस मुठभेड़ में इनकी मृत्यु हो गई.
नेदुन जेरल के बाद चेर राजवंश के अगले शासक अधिराज की उपाधि धारण करने वाले शेलवान कुटवन बने. इनके शासनकाल में इनकी सेना में बड़ी तादाद में हाथी शामिल थे और यही वजह है कि यह राजा हाथियों की संख्या के लिए जाना जाता है.
शेलवान कुटवन के बाद चेर राजवंश के अगले शासक सेन गुटवान बने. इन्हें कला प्रेमी और एक महान् शासक के रूप में देखा जाता है. नौसेना के दम पर इन्होंने महूर नामक राज्य को जीता था. कण्णनी और पत्तनी नामक त्योहार का चलन इनके शासनकाल में ही था. पेरुन जेरल इंरनपोरी को चेर वंश का अंतिम शासक माना जाता है इन्होंने अमरयवरम्यन नामक उपाधि धारण की. अमरयवरम्यन का शाब्दिक अर्थ होता है जिसकी सीमा हिमालय तक फैली हो. भारत में पहली बार गन्ने की खेती इनके शासनकाल में शुरू हुई थी.
द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के बाद चेरों की शक्ति कमजोर हो गई. इसके बाद आठवीं शताब्दी के प्रारंभ तक हमें इतिहास के पन्ने खंगालने पर भी चेर वंश के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है. आठवीं शताब्दी के अंत में चेर वंश के शासक का पल्लव राजा परमेश्वरन के साथ पूरे युद्ध का जिक्र मिलता है. चेराें और चोलों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध थे.
चोल राजा परान्तक प्रथम ने चेर राजकुमारी के साथ विवाह किया था. जैसे-जैसे समय बीतता गया 10 वीं शताब्दी के अंत तक चेराें और चोलों के मध्य संबंध बिगड़ गए. चोलों की बढ़ती हुई ताकत के सामने चेर राजवंश बौना लगने लगा, एक बार मौका पाकर चोलों ने चेराें को अपने अधीन कर लिया. इस समय चोल वंश का शासक राजराज प्रथम था. धीरे-धीरे बाहर भी शताब्दी के प्रारंभ में चोल शासकों की शक्ति कमजोर होती गई और संपूर्ण साम्राज्य पांड्या वंश के अधीन आ गया.
चेर राजवंश की अर्थव्यवस्था
अन्य राजवंशों की तरह चेर राजवंश की अर्थव्यवस्था भी कृषि पर आधारित थी. इस वंश के शासनकाल के दौरान जल मार्ग द्वारा मसाले और स्टील का मुख्य व्यापार होता था. मसालों का व्यापार स्पाइस रूट (जल मार्ग) और सिल्क रोड़ ( जमीनी रास्ता) का उपयोग परसिया और चीन से होने वाले व्यापार के लिए किया जाता था.
चेर राजवंश कला और संस्कृति
चेर राजवंश का इतिहास बताता है कि इस वंश से संबंधित जो मुद्राएं और शिलालेख प्राप्त हुए हैं उनमें यह जानकारी मिलती है कि इन्होंने पत्थरों से जैन मंदिरों का निर्माण करवाया और बाहरी लोगों को पनाह देने के लिए कई मठों का निर्माण करवाया था.
यहां के लोग राजनीतिक आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से बहुत सक्षम थे. खुदाई के दौरान कई प्राचीन सिक्के प्राप्त हुए हैं. इसके साथ ही धनुष और तीर भी खुदाई में मिले. कोचीन नगर के पास खुदाई भी चेर राजवंश के इर्द गिर्द हैं. इस राजवंश से संबंधित सिक्के कोयंबटूर और अमरावती नदी के अंदर से प्राप्त हुए हैं.
चेर वंश की वंशावली
चेर वंश की वंशावली की बात की जाए तो उदियन जेरल इस वंश का संस्थापक माना जाता है. चेर वंश के संस्थापक उदियन जेरल के बाद भी इस वंश में कई महान शासक पैदा हुए थे. चेर वंश की वंशावली निम्नलिखित है –
1 उदियन जेरल (चेर वंश के संस्थापक).
2 नेदुन जेरल.
3 पलयानैशेल्केलु कुट्टवन.
4 धर्मपरायण कुट्टवन.
5 पेरून जेरल.
चेर वंश की राजधानी
हमें चेर राजवंश के सम्बंध में जानकारी कवि कालिदास द्वारा रचित “संगम साहित्य” द्धारा मिलती हैं. इस वंश के शासकों ने कोचीन, दक्षिणी मालाबार और उत्तर त्रावणकोर क्षेत्रों में राज्य किया था. आठवीं शताब्दी से लेकर 12 वीं शताब्दी तक शासन करने वाले चेर वंश की राजधानी कीज़न्थुर-कंडल्लूर और करूर वांची थी. जबकि महाभारत काल के दौरान ( परवर्ती चेर राजवंश) की राजधनी कुलशेखरपुरम और मध्यपुरम हुआ करती थी.
चेर वंश के बंदरगाह
चेर वंश के बंदरगाह मुशिरी या मुजिरिस था. चेर राजवंश की शासनावधि के दौरान व्यापार उन्नत स्थिति में था. थल मार्ग के साथ-साथ जलमार्ग से भी समीपवर्ती देशों में व्यापारिक गतिविधियां होती थी. चेर वंश के बंदरगाह मुशिरी या मुजिरिस रोमन व्यापार का मुख्य केंद्र था. इस समय मांदारजेरल इम्पोरई चेर वंश का राजा था.
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