बालाजी बाजीराव पेशवा (1720-1761)- इतिहास और जीवन परिचय
क्या आप जानते हैं कि बालाजी बाजीराव पेशवा कौन थे? हम बताते हैं बालाजी बाजीराव को “नाना साहेब” के नाम से भी जाना जाता है। यह मराठा साम्राज्य के चितपावन ब्राह्मण कुल से संबंध रखने वाले तीसरे पेशवा थे।
जब बालाजी बाजीराव पेशवा बने तब मराठा साम्राज्य की बागडोर “छत्रपति शाहूजी महाराज” के हाथ में थी।
बालाजी बाजीराव पेशवा जीवन परिचय
परिचय बिंदु | परिचय |
पूरा नाम | बालाजी बाजीराव पेशवा उर्फ़ नाना साहेब |
जन्म | 8 दिसंबर 1720 पुणे |
मृत्यु | 23 जून 1761 पार्वती पहाड़ी पुणे |
पिता का नाम | बाजीराव पेशवा प्रथम |
माता का नाम | काशीबाई |
धर्म | हिंदू, सनातन |
पत्नी का नाम | गोपिकाबाई |
बच्चे | विश्वास राव, माधवराव और नारायणराव |
पूर्व अधिकारी | बाजीराव प्रथम |
उत्तराधिकारी | माधवराव प्रथम |
सन 1740 ईसवी में बाजीराव प्रथम (इनके पिता) की मृत्यु के पश्चात बालाजी बाजीराव पेशवा को पेशवा पद की जिम्मेदारी दी गई। 25 जून 1740 के दिन शासन बालाजी बाजीराव के हाथ में आया और उन्हें मात्र 18 वर्ष की आयु में पेशवा पद मिला।
इनकी राह कतई आसान नहीं थी क्योंकि जैसे ही कमान संभाली “अब्दुल शाह अब्दाली” का सामना करना पड़ा। भारत पर लगातार बाहरी आक्रमण हो रहे थे। 1739 में नादिरशाह के क्रूरता पूर्वक हमलों ने दिल्ली की स्थिति बहुत खराब कर दी।
नादिर शाह ने मुगलों को बुरी तरह से पराजित किया, मुगल बहुत ही दयनीय स्थिति में पहुंच गए। इससे पहले मुगलों की हालत इतनी खराब नहीं हुई थी और उनकी साख भी बहुत गिर गई।
अहमद शाह अब्दाली दिल्ली और पंजाब को जीत लिया। नजीबुद्दौला अपने प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त कर (दिल्ली) अहमद शाह अब्दाली आगे बढ़ गया।
बालाजी बाजीराव पेशवा को एक बहुत ही सुनहरा मौका मिला, इस स्थिति का फायदा उठाकर मुगल साम्राज्य को समाप्त करने का लेकिन पेशवा बालाजी बाजीराव इसका फायदा नहीं उठा सके।
बालाजी बाजीराव पेशवा का बंगाल अभियान
बंगाल में अपना प्रभुत्व और मराठा साम्राज्य के विस्तार के लिए इन्होंने एक अभियान चलाया। पेशवा पद पर नियुक्ति के 1 वर्ष बाद अर्थात सन 1741 में इन्होंने नागपुर और बेरार के राजा “रघुजी भोंसले” को बंगाल में अभियान के लिए उत्साहित किया।
रघुजी भोसले के संबंध बालाजी बाजीराव से अच्छे नहीं थे। रघुजी भोसले चाहते थे कि छत्रपति साहूजी महाराज बालाजी बाजीराव को पेशवा पद से हटा दें लेकिन साहूजी महाराज ने इनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया।
रघुजी भोसले ने कर्नाटक पर हमला कर दिया और वहां के नवाब ने इनसे मदद मांगी। इन्होंने वहां के नवाब को मदद का आश्वासन दिया और नए नवाब अली खान का कत्ल कर पुनः पुराने नवाब को कर्नाटक का नवाब बनाया और उनके साथ मिलकर बंगाल में खूब लूट मचाई।
इतना ही नहीं इन्होंने अपने प्रभाव को कर्नाटक में बढ़ाया और सभी मराठा सरदारों को एक कर उन्होंने दिल्ली को भी अपने अधीन कर लिया।
अंततः 1743 से लेकर 1749 तक इन्होंने बंगाल में अपने प्रभुत्व को स्थापित किया हालांकि वहां के नवाब अलीवदी खान ने उन्हें कई समय तक रोक कर रखा लेकिन अंत में उन्होंने हार मान ली और नगदी के साथ-साथ जेवरात भी मराठों को दिए।
बालाजी बाजीराव पेशवा और ताराबाई की साजिश
सन 1749 ईसवी में “छत्रपति शाहूजी महाराज” की मृत्यु हो गई। छत्रपति शाहूजी महाराज के बाद “राजाराम द्वितीय” को छत्रपति घोषित किया गया।
ताराबाई चाहती थी कि बालाजी बाजीराव को पेशवा पद से हटाया जाए इसके लिए उन्होंने राजाराम द्वितीय से बात भी की लेकिन राजाराम नहीं माने और उन्हें पेशवा पद पर बरकरार रखा। इस बात से नाराज होकर ताराबाई ने राजाराम द्वितीय को सातारा की जेल में कैद कर दिया।
पेशवा बालाजी बाजीराव ने ताराबाई के खिलाफ युद्ध प्रारंभ किया ताराबाई ने दाभादे परिवार (गुजरात का एक शक्तिशाली परिवार) से मदद मांगी। इससे पहले की यह ताराबाई की मदद कर पाते बालाजी बाजीराव पेशवा ने दामाजी राव गायकवाड की 15000 की विशाल सेना को अस्त-व्यस्त कर दिया।
नवंबर, 1750 (संगोला की संधि हुई जिसके तहत छत्रपति की सभी शक्तियां पेशवा के पास आ गई) में ताराबाई ने हार मान ली और उन्होंने घोषणा की कि राजाराम उनका पोता नहीं है, अब मराठा साम्राज्य और छत्रपति की सभी शक्तियां पेशवा के हाथ में आ गई।
और यही वह समय था जब पेशवा मराठा साम्राज्य का सबसे ताकतवर पद बन गया था और इस पद से पूरे भारत के राजा महाराजाओं को मराठों से डर लगने लग गया।
जयपुर के जयसिंह द्वितीय की मृत्यु और बालाजी बाजीराव पेशवा (1752)
जयपुर के राजा जयसिंह द्वितीय के 2 पुत्र थे। एक का नाम ईश्वरी सिंह जबकि दूसरे का नाम माधव सिंह था। 1752 में राजा जयसिंह की मृत्यु के पश्चात उनके दोनों पुत्रों में राजगद्दी को लेकर तनातनी तेज हो गई।
बालाजी बाजीराव पेशवा ने ईश्वरी सिंह का साथ दिया जबकि माधव सिंह की सहायता करने के लिए मुगल आगे आए। इस समय मराठी बहुत मजबूत स्थिति में थे इसी के चलते मुगल दबाव में आ गए और उन्होंने माधव सिंह का साथ छोड़ दिया।
मुगलों के बाद माधव सिंह को मल्हार राव होलकर का समर्थन और साथ मिला। मल्हार राव होलकर का समर्थन मिलने के बाद एक और शक्तिशाली घराने का समर्थन ईश्वरी सिंह को भी मिला और जयपाजी सिंधिया ने उनका साथ दिया।
अंततः रघुनाथ राव और मराठों (बालाजी बाजीराव पेशवा ) ने ईश्वरी सिंह को जयपुर की राज गद्दी पर बिठाया। इसके बदले में उनसे बड़ी रकम की मांग की लेकिन ईश्वरी सिंह देने में अक्षम था क्योंकि वह नहीं चाहता था कि किसी भी तरह से उसकी प्रजा पर अतिरिक्त बोझ बढ़े।
जब ईश्वरी सिंह को ज्यादा परेशान किया गया तो उन्होंने आत्महत्या कर ली। ईश्वरी सिन्हा की मौत के बाद उनके भाई माधव सिंह ने जयपुर की राजगद्दी संभाली लेकिन मराठी सरदार उनको भी परेशान करते रहे। माधव सिंह पूरी तरह से मराठों से नाराज हो गए।
सूरजमल जाट पर आक्रमण (1754)
इस समय भरतपुर के राजा सूरजमल जाट थे, मराठों ने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए और अपना प्रभुत्व जमाने के लिए “भरतपुर रियासत” की ओर बढ़े।
1754 में मराठों ने बालाजी बाजीराव पेशवा के इशारे पर राजा सूरजमल के राज्य की सीमा पर आक्रमण कर दिया। और सूरजमल के लिए संदेश भिजवाया कि अगर वह अपने राज्य को बचाना चाहते हैं तो बड़ी रकम अदा करें।
सूरजमल जाट ने 40 लाख रुपए की पेशकश की लेकिन मराठों ने बहुत छोटा समझकर ठुकरा दिया। मराठों ने लगभग 3 महीने तक भरतपुर पर घेरा डाले रखा, राजा सूरजमल जाट ने हार स्वीकार करते हुए मराठों को 90 लाख रुपए और देने का वादा किया।
मराठों ने भरतपुर छोड़ दिया लेकिन इस समय तक संपूर्ण मध्य भारत में मराठों का अधिपत्य स्थापित हो चुका था।
उदगीरी का युद्ध फ़रवरी 1760
सन 1758 ईस्वी में बालाजी बाजीराव पेशवा ने सदाशिव राव भाऊ (चचेरे भाई) को दक्षिण क्षेत्र में प्रभुत्व जमाने के लिए भेजा। सबसे पहले फ़रवरी 1760 में हैदराबाद के निज़ाम और मराठों के बीच युद्ध हुआ।
पेशवा बालाजी बाजीराव के चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ और निज़ाम की सेना में भयंकर और ऐतिहासिक युद्ध हुआ, इन्होंने उदगीरी (उदगिरी का युद्ध,battle of udgiri) में निजाम की सेनाओं को पराजित कर दिया।
battle of udgiri में बड़ी जीत के साथ सदाशिव राव भाऊ का सेना में पद और प्रभाव दोनों बढ़ गया। इसी को ध्यान में रखते हुए सन 1761 ईस्वी में पानीपत के तीसरे युद्ध में “पेशवा बालाजी बाजीराव” ने इन्हें मराठा सेना का सेनापति नियुक्त किया।
इन्हें उत्तर में भी युद्ध के लिए भेजा गया, इन्होंने एक बड़ी गलती करते हुए कई मराठी सरदारों पर विश्वास नहीं किया, कहते हैं कि यह इनकी सबसे बड़ी भूल थी। रघुनाथ राव, महादजी शिंदे और भी कई बड़े-बड़े सरदार इस बात से नाखुश थे।
1757 से लेकर 1758 ईस्वी तक मराठा साम्राज्य दिल्ली के साथ-साथ पाकिस्तान तक फैल चुका था। 1757 ईस्वी में दिल्ली के एक ताकतवर सम्राट इमाद-उल-मुल्क को इन्होंने अपने साथ मिलाकर संपूर्ण दिल्ली पर प्रभाव जमाया। 1758 में उन्होंने पेशावर पर कब्जा कर लिया।
पानीपत का तीसरा युद्ध (Third Battle of Panipat) और मराठा साम्राज्य का पतन (1761)
बुधवार 14 जनवरी 1761 का दिन था, इतिहास का एक ऐसा दिन जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता।
अहमद शाह अब्दाली और मराठा सेना आमने-सामने थी। वर्तमान में हरियाणा स्थित पानीपत के मैदान में अब्दुल शाह अब्दाली और मराठी सेना के बीच एक भयंकर और निर्णायक युद्ध हुआ।
पेशवा बालाजी बाजीराव ने सदाशिव भाऊ के नेतृत्व में एक बड़ी सेना अब्दुल शाह अब्दाली का सामना करने के लिए भेजी जो कि एक बहुत बड़ी सेना थी।
मराठों ने दिल्ली पर अपना अधिकार कर लिया लेकिन बहुत बड़ी सेना होने की वजह से यहां पर रसद सामग्री आसानी के साथ उपलब्ध नहीं हो रही थी, इसी वजह से पूरी सेना अपने सेनापति सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में पानीपत की तरफ बढ़ गई।
14 जनवरी 1761 को पानीपत के मैदान में एक बहुत विध्वंसक युद्ध हुआ इस युद्ध में मराठी सेना की हार हुई।
बालाजी बाजीराव पेशवा की मृत्यु कैसे हुई (balaji bajirao death)
कई लोगों को बालाजी बाजीराव पेशवा की मृत्यु का पता नहीं है। पेशवा बालाजी बाजीराव विलास प्रेमी थे, कहते हैं कि इसी के चलते उन्हें एक असाध्य रोग हो गया था। पानीपत का युद्ध समाप्त होने के बाद 23 जून 1761 ई. में बालाजी बाजीराव की मृत्यु हो गई।
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