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गुर्जर-प्रतिहार वंश: गुप्त साम्राज्य का पतन व कन्नौज का उदय

गुर्जर-प्रतिहार वंश का प्रभाव कैसे बढ़ा? और कैसे 1000 साल पुराने गुप्त साम्राज्य का पतन हुआ? साथ ही आप पढ़ेंगे कन्नौज का उदय कैसे हुआ?

छठी शताब्दी शताब्दी के अंत में गुप्त साम्राज्य का पतन हो गया। भारतीय इतिहास में 1000 से भी ज्यादा वर्षों तक मगध भारत का राजनीतिक केंद्र रहा, लेकिन गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ कन्नौज उत्तर भारत की राजनीतिक शक्ति का केंद्र बन गया। राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में उत्तर भारत की राजनीतिक एकता बनी रही। 647 ईसवी में हर्ष की मृत्यु के बाद उनका राज्य और राजवंश दोनों का अंत हो गया। संपूर्ण उत्तर भारत में राजनीतिक अराजकता के बीच नवीन राजवंशों और राज्यों का उदय हुआ।

बंगाल में राजा शशांक की मृत्यु के पश्चात आठवीं शताब्दी के मध्य में गोपाल नामक व्यक्ति को राजा चुना गया जो आगे चलकर बंगाल के पाल वंश का संस्थापक बना। दक्षिण भारत में 733 ईसवी में दंतीदुर्ग द्वारा “राष्ट्रकूट साम्राज्य” की स्थापना की गई धीरे-धीरे यह साम्राज्य बढ़ता गया और 10 वीं शताब्दी तक राष्ट्रकूट भारत की राजनीति में सबसे महत्त्वपूर्ण गया।

आठवीं शताब्दी के मध्य में भारत में तीन शक्तिशाली राजवंशों का उदय हुआ, जिनमें भारत के दक्षिण में राष्ट्रकूट राजवंश, भारत के पूर्व में पाल वंश तथा उत्तर भारत में गुर्जर-प्रतिहार। इस समय कन्नौज की स्थिति बहुत कमजोर थी। उत्तर भारत की राजनीतिक शक्ति का गुरुत्वाकर्षण केंद्र होने की वजह से यह तीनों शक्तियां इस पर अधिकार करके उत्तर भारत के अधिकतर भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थी।

gurjar-pratihar वंश का उदय और गुप्त साम्राज्य के पतन की कहानी के साथ पढ़ें कैसे कन्नौज का उदय हुआ।
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आयुध शासन का अंत

आपको बता दें कि आठवीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर में कन्नौज पर आयुध शासकों का शासन था लेकिन आयुध शासन बहुत कमजोर हो गया। शक्तिहीन आयुध शासकों की स्थिति का फायदा उठाकर पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट कन्नौज पर आधिपत्य स्थापित करना चाहते थे। कन्नौज पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए इन महाशक्तियों में संघर्ष शुरू हो गया। जिसे “त्रिपक्षीय संघर्ष” के नाम से जाना गया। लगभग एक शताब्दी तक चले इस संघर्ष में गुर्जर-प्रतिहार शासक ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया।

गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद कन्नौज का वह महत्वपूर्ण स्थान हो गया जो कि मगध साम्राज्य के समय पाटलिपुत्र का था। इस दौर में भारत की सभी महाशक्तियों की नजर कन्नौज पर थी। इन राजनीतिक महाशक्तियों की लालसा कन्नौज पर प्रभुत्व स्थापित कर, भारत के बड़े भूभाग पर अधिकार करना था।

कन्नौज ना सिर्फ राजनीतिक दृष्टि से बल्कि सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था। गंगा नदी के तट पर स्थित होने के कारण नदी मार्ग से होने वाला व्यापार उत्तर और पूर्वी भारत के बीच मुख्य कड़ी था। गंगा और यमुना नदी के मध्य में स्थित होने की वजह से कन्नौज का क्षेत्र काफी उपजाऊ था। गुर्जर प्रतिहार और पाल वंश दोनों की इस क्षेत्र को लेकर बड़ी राजनैतिक महत्वाकांक्षा थी।

कन्नौज को लेकर त्रिपक्षीय युद्ध

कन्नौज को लेकर यहीं से त्रिपक्षीय संघर्ष की शुरुआत हुई। यह त्रिपक्षीय संघर्ष गुर्जर-प्रतिहार, पाल और राष्ट्रकुटो के मध्य था। गुर्जर प्रतिहार कन्नौज पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए सबसे ज्यादा आतुर थे। इस आतुरता की वजह थी समकालीन भारत की अजेय शक्ति राष्ट्रकूटो द्वारा गुर्जर प्रतिहारो पर होने वाले निरंतर हमले।

कन्नौज वह सुरक्षित क्षेत्र था जहां पर अधिकार करने के लिए प्रतिहार व्याकुल थे। प्रतिहारों के लिए कन्नौज सामरिक और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था। इस समय मालवा पर प्रतिहारों का अधिकार था जबकि मालवा का दक्षिण भाग राष्ट्रकूटो के नियंत्रण में था। यहीं से वास्तविक रूप में त्रिपक्षीय संघर्ष की शुरुआत हुई।

कन्नौज पर आयुध शासक इंद्रायुद्ध का अधिकार था जो कि एक निर्बल और कमजोर राजा थे। इन्हें युद्ध में पराजित करके प्रतिहार राजा वत्सराज ने कन्नौज पर कब्जा कर लिया। उत्तर भारत पर अपनी प्रभुत्व स्थापित करने के लिए पाल वंश के शासक धर्मपाल और प्रतिहार शासक वत्सराज के बीच युद्ध प्रारंभ हो गया।

इस मौके का फायदा उठाकर राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने उत्तर भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए प्रतिहार शासक वत्सराज को युद्ध में पराजित कर दिया।

इसके बाद ध्रुव ने पाल शासक धर्मपाल को भी पराजित कर दिया है। इन महत्वपूर्ण विजयों के बाद ध्रुव पुनः दक्षिण की ओर लौट गया। राष्ट्रकूट शासन ध्रुव के दक्षिण में लौटते ही पाल शासक धर्मपाल ने पुनः कन्नौज पर अधिकार कर लिया और चक्रायुद्ध को सिंहासन पर बिठाया।

पाल शासकों की यह विजय प्रतिहारो से देखी नहीं गई। वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने चक्रायुद्ध को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। जब यह बात धर्मपाल को पता चली तो मुंगेर के निकट धर्मपाल और नागभट्ट द्वितीय के बीच एक भीषण युद्ध हुआ जिसमें नागभट्ट द्वितीय को जीत मिली।

पाल शासक धर्मपाल और कन्नौज के पूर्व शासक चक्रायुद्ध एक हो गए और उन्होंने षडयंत्र पूर्वक राष्ट्रकूट नरेश गोविंद तृतीय को आमंत्रित किया। गोविंद तृतीय ने नागभट्ट द्वितीय को बुरी तरह पराजित कर दिया, इस प्रकार प्रतिहारों की कन्नौज पर विजय क्षणिक थी।

चक्रायुद्ध और धर्मपाल ने राष्ट्रकूट नरेश गोविंद तृतीय के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, यह युद्ध 809 ईसवी से 810 ईसवी के आसपास लड़ा गया। धीरे-धीरे समय बीतता गया पाल वंश के शासक धर्मपाल की मृत्यु हो गई। फिर कार्यभार संभाला धर्मपाल के पुत्र देवपाल ने। गोविंद तृतीय पुनः दक्षिण की ओर चला गया। यह देखकर नागभट्ट द्वितीय की महत्वाकांक्षा फिर जाग उठी।

इस समय आंतरिक और बाहरी परिस्थितियों ठीक नहीं होने के कारण राष्ट्रकूट शक्तिहीन हो गए। अमोघवर्ष नामक राष्ट्रकूट राजा कमजोर सेनानायक और शांतिप्रिय थे। इसी वजह से इस त्रिपक्षीय युद्ध से राष्ट्रकूट पीछे हट गए। अब उत्तर भारत में दो महाशक्तियां ही रह गई। एक गुर्जर प्रतिहार और दूसरी पाल वंश। नवी शताब्दी में गुर्जर-प्रतिहार सर्वाधिक प्रभावशाली और शक्तिशाली बन गए।

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