वाकाटक वंश का इतिहास || History Of vakataka Vansh

वाकाटक साम्राज्य/वाकाटक वंश का इतिहास बहुत प्राचीन है, इस वंश का उल्लेख पुराणों में भी मिलता है और साहित्य में भी इसकी झलक देखने को मिलती है. वाकाटक वंश की स्थापना 255 ईस्वी में राजा “विंध्यशक्ति” द्धारा की गई थी. इस वंश का सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली शासक था प्रवरसेन प्रथम जिन्होंने अपने कार्यकाल में 4 अश्वमेघ यज्ञ करवाएं, यह अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है.

वाकाटक साम्राज्य/वाकाटक वंश के शासकों ने तीसरी सदी के मध्य से लेकर छठी सदी तक शासन किया. इस वंश के प्रथम शासक को वाकाटक वंशकेतुः नाम दिया गया. आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश के भूभाग पर इस वंश के शासकों ने शासन किया था वायु पुराण और अजंता लेख में इसका प्रमाण मिलता है.

वाकाटक साम्राज्य/वाकाटक वंश का इतिहास उठाकर देखा जाए तो इसके प्रथम शासक विंध्यशक्ति को यह नाम इसलिए मिला होगा कि क्योंकि इन्होंने विंध्य पर्वतीय भू-भाग पर शासन किया होगा या इसके आसपास इनका शासन रहा होगा. लेकिन यह ऐतिहासिक जानकारी प्रमाणित नहीं है क्योंकि विंध्यशक्ति संबंध में अभी तक कोई सिक्के या अभिलेख प्राप्त नहीं हुए हैं.

इस लेख में हम वाकाटक साम्राज्य/वाकाटक वंश के संस्थापक, इसकी स्थापना, राजधानी और शासन काल के साथ-साथ वाकाटक साम्राज्य/वाकाटक वंश का इतिहास जानेंगे.

पल्लव वंश का स्वर्णिम इतिहास।

वाकाटक साम्राज्य/वाकाटक वंश का इतिहास

वाकाटक साम्राज्य का संस्थापक- राजा विंध्यशक्ति.
वाकाटक साम्राज्य की स्थापना- 255 ईस्वी में.
वाकाटक साम्राज्य की राजधानी- प्रारंभिकराजधानी पुरिका और बाद में नागार्धन.
वाकाटक साम्राज्य का शासन काल- तीसरी सदी के मध्य से लेकर छठी सदी तक.
वावाकाटक साम्राज्य का शासन क्षेत्र- मध्यप्रदेश और आंध्र प्रदेश (बरार).

वावाकाटक साम्राज्य/वाकाटक वंश का इतिहास बताता है कि यह ब्राह्मण धर्म को मानने वाले थे, इन्होंने ब्राह्मणों के लिए बहुत काम किए उनको कृषि कार्य हेतु भूमि दान की और कई तरह के अनुदान भी दिए. सामाजिक संस्था और ब्राह्मण धर्म के आदर्शों को दक्षिण भारत की ओर प्रचार प्रसार करने में वाकाटक वंश के शासकों ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी. सांस्कृतिक दृष्टि से यह इनका अविस्मरणीय योगदान रहा है.

सातवाहन वंश का शासन खत्म होने के पश्चात वाकाटक वंश का उदय हुआ था. 255 ईसवी में वाकाटक वंश की स्थापना से लेकर छठी शताब्दी तक इन्होंने राज किया था. राजा विंध्यशक्ति को इस वंश का प्रथम शासक और संस्थापक माना जाता है. लेकिन इस वंश का सबसे शक्तिशाली राजा प्रवरसेन प्रथम था क्योंकि उनके शासनकाल में कई वैदिक यज्ञों का आयोजन हुआ और सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा मिला.

आज भी वाकाटक वंश के इतिहास के बारे में इतिहासकार ज्यादा जानकारी नहीं बता सकते हैं. संभवतः 280 ईसवी में प्रवरसेन प्रथम वाकाटक वंश का द्वितीय शासक बना, इन्होंने अपने आसपास के कई बड़े शहरों को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया. इनके ही शासन काल में वाकाटक राज्य बुंदेलखंड से बढ़कर हैदराबाद तक फैल चुका था. प्रवरसेन प्रथम के 4 पुत्र थे और उन्होंने अपने चारों पुत्रों को अलग-अलग दिशाओं में भेजा जिसके कारण इनकी शक्ति क्षीण हो गई.

वाकाटक वंश के संस्थापक प्रवरसेन प्रथम का जेष्ठ पुत्र गौतमीपुत्र ने उनके शासनकाल में ही प्राण त्याग दिए जबकि उनके द्वितीय पुत्र सर्वसेन ने बरार से लेकर उत्तरी पश्चिमी हैदराबाद तक शासन किया था.

वावाकाटक साम्राज्य/वाकाटक वंश के मुख्य शासक

1 विंध्यशक्ति-

विंध्यशक्ति वाकाटक वंश के प्रथम शासक और इस वंश के संस्थापक थे. वाकाटक वंश की स्थापना से पहले यह सातवाहन वंश के अधीन मालवा क्षेत्र के शासक हुआ करते थे लेकिन सातवाहन वंश का पतन होने के बाद इन्होंने अपने आप को स्वतंत्र राजा घोषित करते हुए वाकाटक वंश की स्थापना की, जो विंध्य पर्वतीय क्षेत्र के आसपास का क्षेत्र था.

विंध्यशक्ति का शासन 255 ईसवी से लेकर 275 ईसवी तक रहा. विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण विंध्यशक्ति को “वाकाटक वंशकेतु” के नाम से भी जाना जाता है. राजा विंध्यशक्ति इंद्रदेव के समान प्रभुत्ववान था जिनकी भुजाओं में बहुत ताकत थी.

इतिहासकारों के एक तबके का यही मानना है कि विंध्यशक्ति के पूर्वज सातवाहन वंश के राजाओं के अधीनस्थ कार्य करते थे लेकिन सातवाहन वंश का पतन हो जाने के बाद उन्होंने स्वयं को स्वतंत्र घोषित करते हुए नए राज्य की स्थापना की. अजंता लेख के अनुसार विंध्यशक्ति इंद्रदेव के समान थे. इन्होंने लगभग 20 वर्षों तक शासन किया था.

2 प्रवरसेन प्रथम-

प्रवरसेन प्रथम वाकाटक वंश के द्वितीय शासक थे जिन्होंने 275 ईसवी से लेकर 335 ईसवी तक शासन किया. कई इतिहासकार इन्हें वाकाटक वंश के वास्तविक संस्थापक मानते हैं क्योंकि वाकाटक वंश के यह एकमात्र शासक थे जिन्होंने सम्राट की उपाधि धारण की.

प्रवरसेन प्रथम के संबंध में प्राप्त हुए ताम्रपत्र के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उन्होंने चार बार अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करवाया था. राजसूय यज्ञ से इनको बहुत कीर्ति प्राप्त हुई. अपने साम्राज्य को बुंदेलखंड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक विस्तारित करने के दरमियान इन्होंने चारों यज्ञों का आयोजन अलग-अलग सैन्य शक्ति के आधार पर करवाया था. प्रवरसेन प्रथम राजा विंध्यशक्ति के पुत्र थे.

3 रुद्रसेन प्रथम-

रूद्रसेन के पिता का नाम गौतमीपुत्र तथा माता का नाम पद्मावती था. रूद्रसेन के नाना भावनाग का कोई उत्तराधिकारी नहीं था इसलिए उनकी मृत्यु के पश्चात उनके साम्राज्य का मालिक भी रूद्रसेन प्रथम बने. रूद्र सेन को भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त माना जाता है, साथ ही वाकाटक लेखों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उन्हें महाभैरव का उपासक भी माना जाता है.

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार वाकाटक वंश के द्वितीय शासक प्रवरसेन प्रथम की मृत्यु के पश्चात वाकाटक साम्राज्य 2 भागों में विभक्त हो गया एक प्रधान शाखा और दूसरी बासीम शाखा. प्रवरसेन प्रथम के 4 पुत्र थे जिनमें से दो पुत्रों का ही इतिहास में उल्लेख मिलता है. जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा कि प्रवरसेन प्रथम के पुत्र गौतमीपुत्र की मृत्यु उनके शासनकाल में ही हो गई थी इसलिए उनका (गौतमीपुत्र) पुत्र रूद्रसेन वाकाटक साम्राज्य की प्रधान शाखा का नया शासक बना.

वाकाटक साम्राज्य की प्रधान शाखा कि शासन अवधि 335 ईस्वी से 480 ईसवी तक रही, वहीं दूसरी तरफ गौतमीपुत्र के द्वितीय पुत्र सर्वसेन ने बासिम में इस साम्राज्य की द्वितीय शाखा की स्थापना की. वही रूद्रसेन प्रथम की बात की जाए तो उन्होंने 335 ईसवी से 360 ईसवी तक शासन किया था.

4 पृथ्वीषेण प्रथम-

पृथ्वीषेण प्रथम को वाकटक वंश का एक पवित्र और धर्म विजयी शासक माना जाता हैं. इनका शासनकाल 360 ईसवी से लेकर 385 ईसवी तक रहा.

5 रुद्रसेन द्वितीय-

पृथ्वीषेण प्रथम के बाद उनका पुत्र रुद्रसेन द्वितीय वाकाटक वंश का उत्तराधिकारी बना, इन्होंने 385 ईसवी से लेकर 390 ईसवी तक शासन किया. इनकी पत्नी का नाम प्रभावतीगुप्त था, जो कि गुप्त साम्राज्य के शासक चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री थी.

शुरू से ही शैव धर्म के अनुयाई माने जाने वाले रूद्रसेन द्वितीय शादी के पश्चात वैष्णव हो गए. इनकी मृत्यु के समय उनके दोनों पुत्र बहुत छोटे थे. इनके जेष्ठ पुत्र दिवाकर सेन की आयु उस समय 5 वर्ष तथा दामोदर सेन (प्रवरसेन द्वितीय) की आयु मात्र 2 वर्ष थी इसलिए साम्राज्य के शासन की बागडोर रूद्रसेन द्वितीय की पत्नी प्रभावतीगुप्त के हाथ में आ गई.

6 प्रभावतीगुप्त-

प्रभावतीगुप्त राजा रुद्रसेन द्वितीय की पत्नी थी जो उनकी मृत्यु के पश्चात अपने पुत्र दिवाकर सेन की संरक्षिका के रुप में शासिका बनी. इस समय इनके दोनों पुत्र दिवाकर सेन और दामोदर सेन (प्रवरसेन द्वितीय) महज़ 5 वर्ष और 2 वर्ष के थे. इस प्रकार अपने दोनों पुत्रों की संरक्षिका के रूप में प्रभावती गुप्त ने 390 ईसवी से लेकर 400 ईसवी तक लगभग 10 वर्षों तक वाकाटक राज्य पर शासन किया.

7 प्रवरसेन द्वितीय-

दामोदर सेन (प्रवरसेन द्वितीय) ने 400 ईसवी से लेकर 440 ईसवी तक वाकाटक शासक के रूप में शासन किया था इन्हीं के शासनकाल में ब्राह्मणों को भूमि दान में दी गई. सेतुबंध नामक ग्रन्थ की रचना का श्रेय इन्हें जाता हैं.

8 नरेंद्र सेन-

वाकाटक साम्राज्य में पीढ़ी दर पीढ़ी शासन व्यवस्था चली आ रही थी पर अग्रसेन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात उनका पुत्र नरेंद्र सेन वाकाटक वंश का नया शासक बना इन्होंने लगभग 440 ईसवी से लेकर 460 ईसवी तक अर्थात 20 वर्षों तक शासन किया था. इनकी पत्नी का नाम अजीत भट्टारिका था जो कि कदंब वंश की राजकुमारी थी.

9 पृथ्वीसेन द्वितीय-

पृथ्वीसेन द्वितीय का शासनकाल वाकाटक वंश के इतिहास में 460 ईसवी से लेकर 480 ईसवी तक माना जाता है. इन्होंने परम भागवत की उपाधि धारण की.

वाकाटक वंश की उपलब्धियां

वाकाटक वंश के शासकों ने लगभग 300 वर्षों तक दक्षिण भारत में शासन किया था उनके शासनकाल में साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में वृद्धि हुई. इनकी मुख्य भाषा प्राकृत भाषा की. वाकाटक वंश के शासक प्रवरसेन द्वितीय ने सेतुबंध नामक महाकाव्य की रचना की. सर्वसेन ने हरिविजय नामक काव्य लिखा जो कि प्राकृत भाषा में था. उनके शासनकाल में ही संस्कृत की वैदर्भी शैली का विकास हुआ.

इस वंश के अधिकतर शासन भगवान शिव और विष्णु के उपासक थे. विश्व प्रसिद्ध अजंता की गुफा में इसकी झलक देखने को मिलती हैं.

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