पल्लव वंश का इतिहास || History Of Pallav Vansh
पल्लव वंश का इतिहास गौरवपूर्ण रहा हैं, जिसका उल्लेख इस लेख में विस्तृत रूप में करेंगे. ध्यान योग को चीन में फैलाने वाले बोधिधर्म का जन्म इसी वंश में हुआ इससे बड़ी इस वंश की महानता और क्या हो सकती हैं. पल्लव वंश की स्थापना चौथी शताब्दी में हुई.
तेलगु और तमिल क्षेत्र में पल्लवों ने लगभग 600 वर्षों तक शासन किया. इस वंश के शासक अपने आप को क्षत्रिय मानते थे. दक्षिण भारत का पल्लव वंश भारतीय इतिहास के गौरव की गाथा बयां करता हैं.
पल्लव वंश का संस्थापक सिंहवर्मन प्रथम को माना जाता हैं जबकि पल्लव वंश का अंतिम शासक अपराजितवर्मन हैं. पल्लवों की उत्पति पार्थियन लोगों से हुई थी. इस लेख में हम पल्लव वंश का इतिहास, पल्लव वंश का संस्थापक, अन्तिम शासक, राजधानी और इस वंश का सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान का अध्यन करेंगे.
गुप्त वंश या गुप्त साम्राज्य का इतिहास।
पल्लव वंश का इतिहास (History Of Pallav Vansh)
परिचय बिंदु | परिचय |
पल्लव वंश का संस्थापक | सिंहवर्मन प्रथम. |
पल्लव वंश की स्थापना वर्ष | 575 ईस्वी. |
पल्लव वंश का अंत | 897 ईस्वी. |
पल्लव वंश का शासनकाल | लगभग 622 वर्ष ( 275 ईस्वी से लेकर 897 ईस्वी तक). |
पल्लव वंश की राजधानी | कांची. |
मुख्य भाषा | संस्कृत भाषा और तमिल भाषा. |
धर्म | सनातनी (हिंदू). |
पल्लव वंश का अन्तिम शासक | अपराजितवर्मन. |
कांची के पल्लव वंश का इतिहास उठाकर देखा जाए तो इनके सम्बन्ध में हरिषेण की “प्रयाग प्रशस्ति” और चीनी यात्री हेनसांग के यात्रा वृत्तांत से महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती हैं. पल्लव अभिलेखों में इन्होंने स्वयं को भारद्वाज गोत्र का होना लिखा है. पल्लवों की उत्पत्ति को लेकर सबसे दृढ़ मान्यता यह है कि पल्लव राजा सम्राट अशोक के एक राज्य टोंडमंडलम से उत्पन्न हुए हैं.
पल्लव वंश के शासकों की सांस्कृतिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि कांची ही है. लेकीन इन्हें “तोंण्डमण्डलम” का मूल निवासी माना जाता हैं. जैसे जैसे समय बीतता गया पल्लव वंश का साम्राज्य उत्तर में पेन्नार नदी से लेकर दक्षिण में कावेरी नदी तक फैल गया.
पल्लव वंश को दक्षिण भारतीय कुरुम्बा साम्राज्य के नाम से भी जाना जाता हैं. इस वंश के राजाओं ने 600 वर्षों तक तमिल और तेलुगु क्षेत्रों में शासन किया, कांचीपुरम इनका मुख्य राज्य था. पल्लव शब्द तमिल शब्द है जो टोंडेयर या टोंडमान का संस्कृत स्वरूप है. जो इतिहासकार यह मानते हैं कि पल्लवों कि उत्पत्ति तमिल से हुई है वो इनका सम्बन्ध तिरैरियर से जोड़कर देखते हैं. कुछ ऐसे भी इतिहासकार हुए हैं जिन्होंने पल्लवों को ग्वाले (गाय पालने वाले या दूध दोहने वाले) के रूप में परिभाषित करने की कोशिश की है.
“मणिमेखलै” के अनुसार प्रथम पल्लव राजा की उत्पत्ति चोल वंश के राजा और नाग वंश की कन्या से माना जाता है, नागवंश की इस कन्या का जन्म मणिपल्लवम में हुआ था, तो इस वंश का नाम पल्लव वंश पड़ा.
भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार और पुरातत्व के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखक काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार पल्लवों की उत्पत्ति वाकाटक वंश की एक शाखा से हुई है. यह ऐसे इतिहासकार हुए हैं जिन्होंने पल्लवों की उत्पत्ति उत्तर भारत से मानी है. इनके अनुसार यह उत्तर के कायस्थ थे जिन्होंने सैन्य वृत्ति को अपनाया. इनकी सांस्कृतिक परंपराओं में उत्तर भारत की सांस्कृतिक परंपराओं की झलक देखने को मिलती है. पल्लव वंश के शासकों ने अपने प्रारंभिक समय में प्राकृत भाषा का प्रयोग किया आगे चलकर संस्कृत भाषा को अपनाया.
पल्लव वंश के शासकों ने जो उपाधियां धारण की उनमें मुख्य धर्म “महाराज और अश्वमेग्याजिन” हैं. लेकिन उपरोक्त सभी तर्कों के माध्यम से पल्लव वंश के शासकों की उत्पति उत्तरी भारत से स्पष्ट रूप से सिद्ध नहीं होती है.
पल्लव वंश के शासकों से संबंधित कई जन अनुश्रुतियां भी है जो इनको ब्राह्मण द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा से सम्बन्धित मानती हैं लेकीन कदम्ब राजवंश के तालगुंड अभिलेख में इन्हें क्षत्रीय माना गया है. प्रसिद्ध चीनी यात्री हेनसांग भी इन तथ्यों को सही मानता है. ऐसा भी हो सकता हैं कि पल्लव वंश के शासक प्रारंभ में सातवाहनों के सामंत रहे होंगे. कांची का राज्य उन्होंने नाग वंश के शासकों से हासिल किया होगा.
पल्लव वंश के शासकों से संबंधित प्राकृत भाषा और संस्कृत भाषा में लिखे ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं जिनके आधार पर पल्लव वंश के शासकों को प्राकृत भाषी और संस्कृत भाषी में विभाजित किया जा सकता हैं.
पल्लव वंश की उत्पत्ति कैसे हुई?
सातवाहन वंश के पतन के साथ ही पल्लव वंश का उद्भव माना जाता हैं. इतिहासकार बताते हैं कि यह उस समय की बात है जब सातवाहन वंश का राज्य खण्ड खण्ड हो गया जिसकी वजह थी उनका कमज़ोर नेतृत्व. पल्लव वंश ने जिन राज्यों पर अपना अधिकार जमा लिया वो पहले सातवाहन वंश के अधीन थे और पल्लव वंश के शासक उनके सामंत थे.
कांचीपुरम से प्राप्त दो ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि स्कंदवर्मा नामक एक राजा ने बहुत दान पुण्य किया जिन्हें एक लेख में युवमहाराजय और द्वितीय लेख में धम्ममहाराजाधिराज कहा गया है. इससे यह स्पष्ट होता हैं कि पहला लेख उस समय लिखा गया जब वह राजा था जबकि दूसरा लेख महाराजाधिराज बनने के बाद का हैं.
इनकी राजधानी कांची थी, तुंगभद्रा और कावेरी नदियों के आस पास का क्षेत्र इस वंश के राजाओं द्वारा शासित था. पल्लवों की उत्पत्ति को लेकर इतिहास में ज्यादा साक्ष्य मौजूद नहीं है, केवल शिलालेखों पर उत्कीर्ण संदेशों के माध्यम से ही हम इस वंश का प्रारंभिक इतिहास जान सकते हैं लेकिन यह जानना मुश्किल है कि इस वंश का कौन सा राजा पहले आया और कौन सा बाद में.
पल्लव वंश का सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान
पल्लव शासनकाल को ब्राह्मणों के उत्थान और प्रगति का काल भी माना जाता है. कांची को अपनी राजधानी बनाने वाले पल्लव वंश के शासक ब्राह्मण धर्म के मानने वाले थे. नयनारों और अलवारों के भक्ति काल के रूप में पल्लव वंश के शासकों का शासन काल रहा है. परमेश्वर वर्मन प्रथम तथा नरसिंह वर्मन भगवान शिव के बहुत बड़े उपासक थे और उन्होंने शिवजी के कई मंदिरों का निर्माण भी करवाया.
कांची पल्लव काल में मुख्य धार्मिक केंद्र था ब्राह्मण अनुयाई होने के बाद भी पल्लव शासकों ने बौद्ध और जैन धर्म को बढ़ावा दिया. दक्षिण भारत से शुरू होने वाला वैष्णव आंदोलन पल्लव शासनकाल में ही हुआ था.
वहीं दूसरी तरफ पल्लव कालीन स्थापत्य कला की बात करें तो वास्तु और तक्षण कला दक्षिण भारत की स्थापत्य कला बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती है. दक्षिण भारत की द्रविड़ कला का आधार इन्होंने ही रखा था. पल्लव शासकों द्वारा स्थापित दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला के तीन मुख्य अंग थे जिनमें विशाल मंदिर, रथ और मंडप का नाम शामिल हैं.
पल्लव वंश के मंदिर
पल्लवों की शैली की बात करें तो इसे माम्मल शैली और महेंद्र वर्मन शैली में विभाजित किया जा सकता है. विशाल पत्थरों को काटकर गुहामंदिरों (मण्डल) का निर्माण करने का कार्य महेंद्र वर्मन शैली का अद्भुत उदाहरण है. माम्मल शैली की झलक महाबलीपुरम में देखने को मिलती है यहां पर गुहामंदिर के साथ-साथ एकाश्म मंदिर अर्थात रथ का निर्माण भी करवाया गया.
पल्लव वंश के शासकों ने कई रथों का निर्माण कराया जिनमें सात रथ मुख्य है भीम रथ, अर्जुन रथ, सहदेव रथ, धर्मराज रथ, गणेश रथ, पिदरी रथ और वलैयकुटई. इसके अतिरिक्त कई जगह पर पत्थरों और ईट से निर्मित मंदिर भी देखने को मिलते हैं उदाहरण के तौर पर “शोर मंदिर” का नाम लिया जा सकता हैं. नरसिंह वर्मन द्वितीय के शासनकाल में शुरू हुआ कैलाशनाथार मंदिर महेंद्र वर्मन द्वितीय के शासनकाल में जाकर पूरा हुआ. छोटे मंदिरों का निर्माण नंदी वर्मन शैली का अद्भुत उदाहरण है.
पल्लव वंश के शासक (575 से 897 ईस्वी तक)
पल्लव राजवंश के शासकों के बारे में यह स्पष्ट जानकारी तो मौजूद नहीं है कि पहले कौन सा राजा आया और बाद में कौन सा लेकिन शिलालेखों पर उत्कीर्ण संदेशों के माध्यम से जितनी जानकारी इतिहासकारों को मिल पाई है उसके आधार पर हम पल्लव वंश के शासकों के संबंध में पढ़ेंगे.
सिंह वर्मन प्रथम या सिंह विष्णु (कार्यकाल 575 ईस्वी से 600 ईस्वी तक)
अवनी सिंह की उपाधि धारण करने वाले सिंह विष्णु या सिंह वर्मन प्रथम को पल्लव वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है. पालैयम ताम्रपत्र से मिली जानकारी के आधार पर कलभ, पाण्डेय, चेल और चोल शासकों को युद्ध में पराजीत किया था. पल्लव वंश के संस्थापक सिंह विष्णु को वैष्णव धर्म का अनुयायी माना जाता है.
पल्लव कालीन संस्कृत के प्रसिद्ध “कवि भारवी” सिंह वर्मन प्रथम के दरबारी कवि थे जिन्होंने “किरातार्जुनीयम” की रचना की.
महेंद्र वर्मन प्रथम (कार्यकाल 600 ईस्वी से 630 ईस्वी)
महेंद्र वर्मन प्रथम पल्लव वंश के द्वितीय शासक बने यह सिंह वर्मन प्रथम अथवा सिंह विष्णु के पुत्र थे. इन्होंने लगभग 30 वर्षों तक शासन किया. “मत्तविलास” नामक हास्य ग्रन्थ की रचना करने के कारण इन्हें मत्तविलास की उपाधि दी गई. इसके अलावा भी इन्हें कई उपाधियां मिली जिनमें गुणभर, ललितांकुर और शत्रुमल्ल आदि मुख्य हैं. संगीत के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त द्रोणाचार्य इनके गुरु थे.
महेंद्र वर्मन प्रथम के शासनकाल के दौरान चालूक्यों के साथ पल्लव वंश का संघर्ष प्रारंभ हो गया है जिसमें महेंद्र वर्मन प्रथम को हार का सामना करना पड़ा. इन्हें पराजित करने वाले चालुक्य शासक का नाम पुलकेशिन द्वितीय था. प्रारंभ में यह जैन धर्म के समर्थक रहे लेकिन बाद में एक संत जिनका नाम था “अप्पर” के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने शैव धर्म को अपना लिया.
महेंद्र शैली के जनक महेंद्र ब्राह्मण प्रथम को कई मंदिरों के निर्माण का श्रेय दिया जाता हैं, बड़ी-बड़ी और कठोर चट्टानों को काटकर गुहा मंदिरों का निर्माण इन्होंने करवाया था जिन्हें “मण्डप” नाम से जाना जाता हैं. अनंतेश्वर मंदिर और मक्कोड़ा मन्दिर आदि इसके उदाहरण हैं.
नरसिंह वर्मन प्रथम (कार्यकाल 630 से 668 ईस्वी तक)
“कुर्रम अभिलेख” से मिली जानकारी के अनुसार इन्होंने चालूक्यों के साथ हुई अपने पिता (महेंद्र वर्मन प्रथम) की हार का बदला लेने का निर्णय लिया. इसी दिशा में इन्होंने अपनी सैन्य शक्ति को अधिक मजबूत और संगठित किया और एक अभियान के तहत उत्तर भारत की ओर निकल पड़े. “माल्लम” की उपाधि धारण करने वाले नरसिंह वर्मन प्रथम पल्लव वंश के सबसे शक्तिशाली शासकों में से एक थे.
मल्लिकार्जुन मंदिर के पाषाण अभिलेख से प्राप्त जानकारी के अनुसार इन्होंने चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय को युद्ध में पराजित करते हुए उनकी राजधानी वातापी पर कब्जा करते हुए “वातापीकोंड” की उपाधि धारण की . इस दरमियान नरसिंह वर्मन प्रथम और पुलकेशिन द्वितीय के मध्य तीन युद्ध (पिरयाल, शुरमार और मणिमंगलम) लड़े गए और तीनों युद्धों में नरसिंह वर्मन की जीत हुई.
नरसिंह वर्मन प्रथम ने कई मंदिरों का निर्माण करवाया (माल्लम शैली) जिनमें एकाश्म रथ मंदिर (सप्तपगौड़ा) मुख्य हैं. महाबलीपुरम नामक नगर की स्थापना नरसिंह वर्मन ने ही की थी इस नगर को पहले महामल्लपुरम के नाम से जाना जाता था.
इसी नगर में इन्होंने धर्मराज मंदिर और पेरू मंदिर भी बनवाया. प्रसिद्ध चीनी यात्री हेनसांग इन्हीं के कार्यकाल में कांची (कांचीपुरम) आया था.
महेंद्र वर्मन द्वितीय (कार्यकाल 668 से 670 ईस्वी तक)
महेंद्र वर्मन द्वितीय पल्लव वंश के शासक थे जो उनके पिता नरसिंह वर्मन प्रथम की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठे. इनके शासनकाल में भी चालुक्यों से संघर्ष चलता रहा. सत्ता के लिए जारी इस संघर्ष में लड़ते हुए महेंद्र वर्मन द्वितीय को 670 ईस्वी में चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम ने युद्ध करते हुए मौत के घाट उतार दिया.
परमेश्वर वर्मन प्रथम (कार्यकाल 670 से 695 ईस्वी तक)
जब चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम के साथ युद्ध करते हुए महेंद्र वर्मन प्रथम की मृत्यु हो गई तब उनका पुत्र परमेश्वर वर्मन प्रथम पल्लव वंश के नए राजा बने. ये भी शैव धर्म को मानते थे, इन्होंने मामल्लपुरम (महाबलीपुरम) में भगवान श्री गणेश जी के मंदिर का निर्माण करवाया था. इन्होंने “गुणभाजन”, “लोकादित्य” और “एकमल्ल” नामक उपाधियां धारण की. इन्होंने भी चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम के साथ युद्ध करना जारी रखा लेकिन इनके मध्य हुए सभी युद्ध बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हुए.
नरसिंह वर्मन द्वितीय (कार्यकाल 695 से 720 ईस्वी तक)
सन 695 ईस्वी में परमेश्वर वर्मन प्रथम की मृत्यु के पश्चात पल्लव वंश के शासक के रूप में नरसिंह वर्मन द्वितीय गद्दी पर बैठे. इनका शासनकाल बहुत शांतिपूर्ण और संकृति को बढ़ावा देने वाला रहा. मंदिर निर्माण की राजसिंह शैली के जनक नरसिंह वर्मन ने अपने कार्यकाल में कई मंदिरों का निर्माण करवाया था जिनमें कांची का कैलाशनाथ मंदिर, एरावतेश्वर मंदिर और बैकुंठ पेरूमल मुख्य हैं.
इनके शासनकाल में ही कांची में एक संस्कृत विश्वविद्यालय का निर्माण किया गया. काम के अनुसार इन्होंने राजसिंह, शंकर भक्त और अगमप्रय की उपाधि धारण की. ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि “दंडी” नामक प्रसिद्ध संस्कृत के कवि नरसिंह वर्मन द्वितीय के दरबार में थे. जिस वर्ष इन्होंने अपना एक प्रतिनिधिमंडल राजकार्य के लिए चीन भेजा उसी वर्ष इनकी मृत्यु हो गई.
परमेश्वर वर्मन द्वितीय (कार्यकाल 720 ईस्वी से 730 ईस्वी तक)
परमेश्वर वर्मन द्वितीय का इतिहास पल्लव वंश के लिए अच्छा नहीं माना जाता हैं क्योंकि इनके शासनकाल में ही चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय ने इनको पराजीत करते हुए कांची पर अधिकार कर लिया.
नंदीवर्मन द्वितीय कार्यकाल (730 से 795 ईस्वी तक)
परमेश्वर वर्मन द्वितीय की मृत्यु के साथ ही पल्लव वंश का पतन और अंत हो गया. इनकी मृत्यु के पश्चात Pallav Vansh में कोई भी योग्य शासक नहीं बचा जिसके चलते सत्ता के लिए गृहयुद्ध छिड़ गया. परमेश्वर वर्मन द्वितीय के बाद इनके सहयोगी भीम वंश ने सत्ता अपने हाथ में लेली.
नंदीवर्मन का सम्बन्ध भीम वंश से हैं जिन्होंने धीरे धीरे पल्लव वंश को मजबूती प्रदान की और संगठित होकर कांची को पुनः चालुक्यों से मुक्त करवाया. नंदीवर्मन द्वितीय का विवाह दंतीदुर्ग (राष्ट्रकुट वंश) की पुत्री रेवा के साथ एक संधी के तहत तय हुआ. यह संधि दंतीदुर्ग द्धारा नंदी वर्मन को पराजीत करने के बाद की गई थी.
नंदी वर्मन द्वितीय ने कांची में मुक्तेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था जो कि नंदी वर्मन शैली (छोटे छोटे मंदिरों का निर्माण) का अद्भुत नमूना माना जाता हैं.
दंतीवर्मन (कार्यकाल 796 से 847 ईस्वी तक)
दंतीवर्मन, नंदी वर्मन द्वितीय और रेवा का पुत्र था. इन्होंने 796 से लेकर 847 ईस्वी तक राज किया. इनके इतिहास के संबंध में ज्यादा साक्ष्य मौजूद नहीं है.
नंदी वर्मन तृतीय (कार्यकाल 847 से 872 ईस्वी तक)
नंदी वर्मन तृतीय दंतीवर्मन के पुत्र थे जो दंतीवर्मन की मृत्यु के पश्चात गद्दी पर बैठे. जब इन्होंने सत्ता संभाली तब तक पल्लव वंश की शक्ति बहुत कमजोर हो चुकी थी और यही वजह रही कि इन्होंने सत्ता संभालते ही पल्लव वंश के राज्य विस्तार पर ध्यान दिया और पांडयों को युद्ध में पराजित किया.
इनका विवाह राष्ट्रकुट वंश की राजकुमारी और अमोघवर्ष की बेटी शंखा के साथ हुआ था.
नृपतंग वर्मन ( कार्यकाल 872 से 882 ईस्वी तक)
अमोघवर्ष की पुत्री शंखा और नंदी वर्मन तृतीय ने पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम था नृपतंग वर्मन. सन 872 ईस्वी में यह राजा बने. इन्होंने पाण्डेय वंश के शासक वरगुण द्वितीय को परास्त कर दिया.
अपराजित वर्मन (कार्यकाल 882 से 897 ईस्वी तक)
अपराजित वर्मन को पल्लव वंश का अन्तिम शासक माना जाता हैं. इनकी अयोग्यता और कमजोरी के चलते पल्लव वंश का शासन काल खत्म हो गया. इनके समय में चोल वंश के शासक इनके सामंत के रूप में काम कर रहे थे लेकिन इनकी कमजोर स्थिति का फायदा उठाकर आदित्य प्रथम (चोल वंश) ने अपराजित वर्मन को मौत के घाट उतार दिया और पल्लव वंश के कार्यक्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया.
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