गुप्त वंश या गुप्त साम्राज्य का इतिहास || History Of Gupta Vansh
गुप्त वंश का इतिहास उठाकर देखा जाए तो इसमें कई नामी और विश्व विख्यात प्रतापी सम्राट हुए हैं जिनमें श्री गुप्त, चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त, विक्रमादित्य और स्कंदगुप्त जैसे महान शासकों के नाम आते हैं.
गुप्तकाल या गुप्त वंश के इतिहास के प्रमुख स्त्रोतों में गुप्तकालीन प्रशस्तियां मुख्य हैं. यह प्रशस्तियां राजा की तारीफ करने के लिए लिखी जाती थी, जिनमें राजा की उपलब्धियां और महानता को दर्शाया जाता था. गुप्तकाल में हरिसेन, वत्सभट्टी और वासुल जैसे महान लेखक प्रशस्ति के माध्यम से गुप्तवंश के इतिहास को लिखते थे.
गुप्त वंश का इतिहास और प्रमुख शासक
गुप्त वंश की स्थापना- 240 ईस्वी.
गुप्त वंश का अंत- 550 ईस्वी.
गुप्तकालीन इतिहास की जानकारी स्त्रोत- वायुपुराण.
गुप्त वंश का संस्थापक- श्री गुप्त.
गुप्त वंश की राजधानी- पाटलिपुत्र.
गुप्त वंश की भाषा- संस्कृत.
धर्म- हिंदू सनातन.
गुप्त वंश का फैलाव- वर्तमान भारत पाकिस्तान बांग्लादेश और नेपाल.
275 ईसवी (तीसरी शताब्दी के अंत में) के आसपास श्रीगुप्त ने गुप्त वंश की स्थापना की थी. गुप्त वंश का इतिहास पुरातात्विक और साहित्यिक दोनों तरह के प्रमाणों से ज्ञात होता है. भारत के प्राचीन राजवंशों में गुप्त वंश या गुप्त राजवंश एक मुख्य राजवंश था. गुप्तकालीन युग को स्वर्ण युग माना जाता है.
यह स्थान प्रयाग के समीप कौशांबी था. गुप्त वंश का इतिहास देखा जाए तो अपने आरंभिक समय में यह केवल मगध तक सीमित था लेकिन इस वंश के महान सम्राटों ने धीरे धीरे उत्तर भारत में अपने पैर पसारने शुरू कर दिए और संपूर्ण उत्तर भारत को अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया. दक्षिण भारत के शासक कांजीवरम को भी इनकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी. गुप्त वंश में “सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय” (विक्रमादित्य या शकारी) जैसे प्रतापी राजा हुए जोकि “कालिदास” के संरक्षक थे, इनका शासनकाल 380 ईस्वी से 415 ईस्वी तक रहा.
सभी गुप्त शासक वैदिक धर्म को मानने वाले थे लेकिन उनमें से एक “नरसिंहगुप्त बलादित्य” (463-473 AD) ने बौद्ध धर्म अपनाया. गुप्तकालीन भारत को इसलिए भी भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग माना जाता है क्योंकि इसी युग में कालिदास जैसे महान कवि का जन्म हुआ. इतना ही नहीं रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, अमरकोश जैसे महान ग्रंथों की रचना इसी युग में हुई थी.
महान और विश्वविख्यात गणितज्ञ आर्यभट्ट तथा वराह मिहिर गुप्तकालीन हैं. गुप्त वंश का इतिहास इसलिए भी महत्वपूर्ण और अविस्मरणीय है क्योंकि दशमलव प्रणाली का आविष्कार इसी युद्ध में हुआ था. साथ ही मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला और धातु विज्ञान के क्षेत्र में भी इस युग में प्राप्त की गई उपलब्धियां आज भी प्रासंगिक है. विश्व विख्यात “नालंदा विश्वविद्यालय” का निर्माण भी गुप्त राजा कुमारगुप्त द्वारा किया गया था.
गुप्तकालीन समय में समय में ब्राह्मणों का समाज में बहुत आदर और सत्कार था. ब्राह्मणों को बड़े पैमाने पर कृषि कार्य हेतु भूमि अनुदान में मिलती थी. उस समय यह नियम था कि ब्राह्मण के घर में पांच, क्षत्रीय के घर में चार, वैश्य के घर में तीन और शुद्र के घर में दो कमरे होने चाहिए. न्यायिक व्यवस्थाओं में भी भेदभाव देखने को मिलता था इस समय न्यायिक संहिताओं में बताया गया है कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रिय की परीक्षा अग्नि से, वैश्य की जल से और शूद्र की विष से की जानी चाहिए. इस समय दास प्रथा का भी प्रचलन था.
स्त्रियों की स्थिति की बात की जाए तो बाल विवाह और सती प्रथा जैसी प्रथाएं प्रचलन में थी. साथ ही नारी आजीवन पुरुष के नियंत्रण में रहती थी. विधवा महिलाओं को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी. इस काल में वेश्यावृत्ति का उल्लेख भी मिलता है.
गुप्त साम्राज्य शासन प्रणाली
राजा अथवा सम्राट–
गुप्त वंश का इतिहास बताता हैं कि राजा अथवा सम्राट केंद्र में सबसे बड़ा अधिकारी होता था. गुप्त वंश के राजाओं ने महाराजधीराज और परमेश्वर जैसी उपाधियां ग्रहण की, जिसका सीधा सा अर्थ होता है कि उनका साम्राज्य बहुत बड़ा था और आसपास के कई छोटे छोटे राजा उनके अधीन थे.
मंत्रिमंडल–
गुप्त वंश या गुप्त साम्राज्य में एक केंद्रीय मंत्रिमंडल होता था जिसका पद प्रायः वंशानुगत होता था. हर महत्वपूर्ण विषय पर राजा द्वारा इन मंत्रियों से सलाह ली जाती थी, हर विभाग किसी ने किसी मंत्री के अधीन होता था.
प्रांतीय शासन व्यवस्था–
गुप्त वंश के राजाओं ने शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए अपने साम्राज्य को कई प्रांतों (मुक्ति) में बांट रखा था.
जिलेवार प्रबंध–
गुप्त वंश के शासक अपने साम्राज्य को कई प्रांतों में बांटने के बाद प्रांतों को भी कई जिलों में बांट रखा था. जिलों के शासक विषयपति नाम से जाने जाते थे. इनकी नियुक्ति प्रांतीय शासक द्वारा की जाती थी. इनमें सलाह देने के लिए जिला समितियां और सरकारी अधिकारी के साथ-साथ आम नागरिक भी शामिल होते थे.
नगर एवं गांव का शासन–
नगर के शासन की कमान नगरपति के हाथ में होती थी, यह नगरपति नगर में रहने वाले लोगों से कर लेते थे और विकास कार्य करवाने में इसे खर्च करते थे. साथ ही गांव का शासन सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रत्येक गांव में एक ग्रामाध्यक्ष की नियुक्ति की जाती थी.
गुप्तकालीन अधिकारी
गुप्तकालीन इतिहास पढ़ा जाए तो उस समय निम्नलिखित अधिकारीगण थे-
प्रशासनिक अधिकारी- संधि विग्रहक.
संधि और युद्ध का मंत्री- कुमारामात्य.
भोजनशाला का अध्यक्ष- खाध्यत्पकिका.
मुख्य न्यायाधीश- महादंडनायक.
पुलिस विभाग का प्रधान- दंडपाशिक.
सैन्य कोष का अधिकारी- बलाधिकृत.
गज सेना प्रमुख- महाप्रतिहार.
अश्व सेना का प्रमुख- महाश्वपति या भटाश्वपति.
भूमि कर वसूलने वाला मुख्य अधिकारी- धुर्वकरण.
गुप्त वंश के राजा/शासक या गुप्त वंश वंशावली
गुप्त वंश में कई महान सम्राटों ने जन्म लिया जिनमें गुप्त वंश के संस्थापक श्रीगुप्त से लेकर अंतिम शासक विष्णुगुप्त शामिल है. गुप्त वंश के इतिहास को इन्हीं राजाओं ने स्वर्णिम बना दिया. गुप्त वंश के प्रमुख शासक और गुप्त वंश वंशावली निम्नलिखित हैं-
1 श्रीगुप्त प्रथम (240-280 ई.)
श्रीगुप्त गुप्त वंश का प्रथम शासक और गुप्त वंश का संस्थापक राजा था, यही से गुप्त वंश का इतिहास प्रारम्भ होता हैं . इन्होंने 240 ईसवी में गुप्त वंश की स्थापना की, पुणे से प्राप्त ताम्रपत्रों में श्रीगुप्त को “आदिराज” के नाम से भी संबोधित किया गया है. श्रीगुप्त ने लगभग 40 वर्ष तक शासन किया, प्राचीन लेखों में इन्हें महाराजा की उपाधि दी गई थी.
2 घटोत्कच (280-319 ई.)
घटोत्कच, श्रीगुप्त के पुत्र थे जो अपने पिता की मृत्यु के पश्चात सिंहासन पर बैठे. कई ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य ( अभिलेख) मौजूद हैं जिनमें घटोत्कच को गुप्त वंश का प्रथम राजा बताया गया है. संभवत या इनका साम्राज्य मगध के आसपास तक ही सीमित था.
3 चंद्रगुप्त प्रथम (319-355 ई.)
गुप्त शासक घटोत्कच ने उनके पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. एक संधि के तहत चंद्रगुप्त ने मगध की शक्तिशाली लिछावी राजकुमारी “कुमारदेवी” से विवाह किया उन्हें दहेज में मगध साम्राज्य प्राप्त हुआ. यहीं से चंद्रगुप्त प्रथम ने नेपाल के लिछावियों के साथ मिलकर साम्राज्य विस्तार पर काम किया.
गुप्त वंश का इतिहास बताता है कि कुषाणकालीन युग में मगध की शक्ति और प्रसिद्धि खत्म हो गई थी, जिसको गुप्त वंश के शासक चंद्रगुप्त प्रथम ने पुनः स्थापित किया. साम्राज्य विस्तार करते हुए चंद्रगुप्त प्रथम ने साकेत (अयोध्या) और प्रयागराज तक अपनी सीमाओं को स्थापित किया.
राजधानी पाटलिपुत्र से चंद्रगुप्त प्रथम अपने साम्राज्य को संभालता था, इन्हें महाराजाधिराज की उपाधि प्रदान की गई साथ ही कई विवाह संधियों के तहत इन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार किया. इन्होंने “गुप्त संवत्” की शुरुआत की थी साथ ही सिक्कों का चलन का श्रेय भी इन्हें दिया जाता है.
4 समुद्रगुप्त या भारत का नेपोलियन (355-375 ई.)
चंद्रगुप्त प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त सिंहासन पर बैठा इन्हें गुप्त साम्राज्य का विस्तार करने का श्रेय दिया जाता है, इनके समय में गुप्त साम्राज्य पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में पूर्वी मालवा तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक फैल गया. इन्हीं “विस्तारवादी नीतियों के कारण इतिहासकार वी.ए. स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन” कहा है. समुद्रगुप्त एक महान सम्राट होने के साथ-साथ संगीतकार और कवि भी था.
समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण के प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के 9 राज्यों जिनमें वाकाटक राज्य, नागवंश का राज्य, पुष्करण का राज्य, मतिल राज्य, मथुरा राज्य, नागसेन, रामनगर के राज्य, नागवंशी राज्य, नंदिनी, असम राकी और कोटवंशीय राज्य शामिल थे.
इनके अलावा समुद्रगुप्त प्रथम ने राजस्थान मध्य प्रदेश और पंजाब पर विजय प्राप्त की जिनमें रहने वाली कई जातियों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की इन जातियों में अमीर, काक, मुद्रक, यौधेय, सकानिक, नागार्जुन, प्रार्जुन, खरपारीक, मालवा आदि मुख्य थी
गुप्त वंश के शासक समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत और दक्षिण भारत के राजू को भी पराजित किया लेकिन अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया जबकि उनसे “कर” (Tax) लिया और सैन्य सहायता प्राप्त करते रहें.
दक्षिण भारत के राज्यों को भी समुद्रगुप्त ने पराजित कर दिया लेकिन राजधानी पाटलिपुत्र से अधिक दूरी होने के कारण इन्हें अपने साम्राज्य में नहीं मिला कर केवल “कर” लेना स्वीकार किया.
5 रामगुप्त (375 ई.)
6 चंद्रगुप्त द्वितीय अथवा विक्रमादित्य (375-414 ई.)
विक्रमादित्य और देव गुप्त के नाम से प्रसिद्ध चंद्रगुप्त द्वितीय अपने पिता समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात गुप्त वंश के शासक बने. विक्रमादित्य इनका नाम नहीं होकर एक उपाधि था. लगभग 40 वर्षों तक राज करने वाले चंद्रगुप्त द्वितीय को “शक विजेता” के नाम से भी जाना जाता है.
इनके शासनकाल में कला और साहित्य ने बहुत तरक्की की. इन्होंने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से उज्जैन स्थापित की जो कि इनकी दूसरी राजधानी थी. इनका साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तथा पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ था. विश्व प्रसिद्ध कवि कालिदास चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में शामिल नौ रत्नों में प्रधान माने जाते हैं.
इनके अलावा चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में प्रसिद्ध चिकित्सक धनवंतरी जिन्हें आयुर्वेदिक चिकित्सा के भगवान माना जाता है भी शामिल थे साथ ही अमरसिंह, बेतालभट, वराहमिहिर, घटकर्पर, वररुचि, शंकु और क्षपणक (ज्योतिषाचार्य) आदि शामिल थे. और यही वजह थी कि चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन काल को भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग माना गया है.
मथुरा, उदयगिरि, सांची और महरौली (दिल्ली) से प्राप्त अभिलेख और चंद्रगुप्त द्वितीय के समय प्रचलित सिक्के इनके इतिहास के मुख्य स्त्रोत हैं. चीनी यात्री फाह्यान चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में भारत आया था. साथ ही चंद्रगुप्त द्वितीय ऐसे शासक थे जिन्होंने चांदी के सिक्के शुरू किए जिन्हें रूपक या रप्यक कहा जाता है.
7 कुमारगुप्त प्रथम महेंद्रादित्य (415-455 ई.)
चंद्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु भारत के लिए एक बहुत बड़ी क्षति थी. उनकी मृत्यु के पश्चात उनका पुत्र कुमारगुप्त गुप्त वंश के सिंहासन पर आसीन हुए. इन्होंने अपने कार्यकाल में अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करवाया और महेंद्रादित्य की उपाधि धारण की. विश्व विख्यात “नालंदा विश्वविद्यालय” की स्थापना इन्होंने करवाई थी. कुमारगुप्त के समय जारी सिक्कों से उसके शासन काल के बारे में जानकारी मिलती है.
8 स्कंदगुप्त (455-467 ई.)
कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के बाद इनका पुत्र स्कंदगुप्त गुप्त शासन के राज सिंहासन पर आसीन हुए. इन्होंने “हूणो” से भारत की रक्षा की. एक महान लोक कल्याणकारी सम्राट होने के नाते इन्होंने “शकरादित्य” और “विक्रमादित्य” जैसी उपाधियां धारण की. इन्होंने अपने कार्यकाल में “शकों एवं हूणों” को पराजित किया था.
9 पुरुगुप्त (467-473 ई.),
10 कुमारगुप्त द्वितीय (473-476 ई.),
11 बुद्धगुप्त (476-495 ई.),
12 नृसिंहगुप्त बालादित्य (495-530 ई.),
13 कुमारगुप्त तृतीय (530-540 ई.),
14 विष्णुगुप्त (540-550 ई.).
गुप्तकालीन न्याय व्यवस्था
जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा गुप्तकालीन समय को भारत का स्वर्णिम काल कहा जाता है. इस समय में न्याय व्यवस्था उन्नति थी साथ ही सरल कानून बना हुआ था. चीनी यात्री फाहियान के अनुसार अपराधियों को मृत्युदंड नहीं दिया जाता था. कानून व्यवस्था बनाए रखने का जिम्मा राज्य का होता था. राजा द्वारा किसी भी मुकदमे का फैसला पुरोहितों की सहायता से किया जाता है.
गुप्त साम्राज्य कृषि और व्यापार
इस समय भारतीय आर्थिक जीवन उन्नत था कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था थी पारंपरिक अनाजों के अलावा फलों एवं तिलहन की खेती भी की जाती थी. भू-कर के रूप में किसानों से 1/6 भाग सरकार कर के रूप में वसूलती थी.
देश के प्रत्येक कोने तक व्यापार की पहुंच थी और साफ सुथरी सड़कें बनी हुई थी गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों में बड़े-बड़े नाव द्वारा माल को इधर-उधर लाया व ले जाया जाता था.
गुप्त वंश के पतन के कारण
गुप्त वंश के पतन के लेकर तरह-तरह के तर्क दिए जाते हैं, स्कंद गुप्त की मृत्यु के पश्चात साफ तौर पर देखा जाए तो गुप्त साम्राज्य का अंत हो गया. हालांकि इनकी मौत के बाद इनके वंशज पुरुगुप्त, बुधगुप्त, नरसिंहगुप्त, कुमारगुप्त द्वितीय और विष्णुगुप्त ने शासन किया था.
शकों एवं हूणों ने लगातार आक्रमण जारी रखें साथ ही गुप्त शासकों ने गुप्त साम्राज्य की उत्तरी पश्चिमी सीमा की सुरक्षा की कोई खास व्यवस्था नहीं की थी, जिसका सीधा लाभ हूणों को मिला और उन्होंने गुप्त साम्राज्य को कमजोर कर दिया, जिसके चलते गुप्त वंश के पतन की नींव पड़ गई.
480 ईसवी में श्वेत हूणों ने गुप्त साम्राज्य की कमर तोड़ दी और 550 ईसवी तक पूरी तरह से उत्तर-पश्चिम के इलाकों पर अपना अधिकार जमा लिया लिया. गुप्त वंश के पतन के कारण निम्नलिखित हैं-
1 गुप्त वंश के पतन का मुख्य कारण पारिवारिक कलह माना जाता है.
2 गुप्त वंश के पतन का दूसरा बड़ा कारण विदेशी आक्रमण (शकों व हूणों) माना जाता हैं.
3 स्कंद गुप्त के पश्चात योग्य उत्तराधिकारी का नहीं होना.
4 विशाल साम्राज्य.
5 समय के साथ साथ सब कुछ समाप्त हो जाता है गुप्त वंश के शासकों ने लगभग 300 वर्षों तक शासन किया.
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