पश्चिमी गंग वंश का इतिहास– पश्चिमी गंग वंश भारत का एक प्राचीन राजवंश था, जिसने कर्नाटक पर राज्य किया. पश्चिमी गंग वंश का शासन काल या अस्तित्व 350 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक रहा. पल्लव वंश के पतन के साथ ही बहुत से स्वतंत्र राज्यों और शासकों का उदय हुआ, जिनमें पश्चिमी गंग वंश के शासक भी शामिल थे.
पश्चिमी गंग वंश का इतिहास बताता हैं कि पश्चिमी गंग वंश की स्थापना के समय इसकी राजधानी कोलार थी, जो बाद में तलवाड़ (मैसूर) जो कि कावेरी नदी के तट पर स्थित था में स्थानांतरित कर दी गई. पश्चिमी गंग वंश के संस्थापक दिदिग थे. इस लेख में हम पश्चिमी गंग वंश के संस्थापक और पश्चिमी गंग वंश का इतिहास और स्थापना के बारे में विस्तृत रूप से जानेंगे.
पश्चिमी गंग वंश का इतिहास (History Of Paschimi Gang Vansh)
पश्चिमी गंग वंश का संस्थापक- दिदिग.
पश्चिमी गंग वंश का कार्यकाल- 350 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक.
पश्चिमी गंग वंश का प्रथम राजा- कोंगानिवर्मन.
पश्चिमी गंग वंश की राजधानी, प्रारंभिक- कोलार (कुलवुल).
पश्चिमी गंग वंश की राजधानी उत्तरवर्ती- तलवाड़ (तलवनपुर).
पश्चिमी गंग वंश का शासन क्षेत्र- कर्नाटक और समीपवर्ती क्षेत्र.
पश्चिमी गंग वंश की उत्पति- इक्ष्वाकु वंश से.
पश्चिमी गंग वंश के शासक किस धर्म के अनुयायी थे- हिंदू और जैन धर्म (ज्यादातर).
पश्चिमी गंग वंश के शासकों की गौत्र- काण्वायन गौत्र.
भाषा – कन्नड़ और संस्कृत.
पश्चिमी गंग वंश का उदय दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में हुआ था. इसे तलनाड का गंग वंश भी कहा जाता है. पश्चिमी गंग वंश का इतिहास उठाकर देखा जाए तो प्राचीन समय में इस वंश के लोग गंगा नदी के किनारे रहते थे, दूसरी तरफ इनका उदय इक्ष्वाकु वंश से हुआ था.
पश्चिमी गंग वंश ने खुद की ऐतिहासिक महत्ता स्थापित करने के लिए इक्ष्वाकु वंश से अलग होकर स्वयं को गंग वंश की उपाधि दी क्योंकि यह गंगा नदी के समीपवर्ती क्षेत्रों में रहते थे. वहां से आकर इन्होंने कर्नाटक में राज्य स्थापित किया और गंग वंशी कहलाए.
पश्चिमी गंग वंश की दो मुख्य शाखाएं थी जिनमें पूर्वी गंग वंश तथा पश्चिमी गंग वंश शामिल है. पूर्वी गंग वंश की बात की जाए तो इन्होंने कलिंग पर पांचवी शताब्दी में शासन किया था वहीं दूसरी तरफ पश्चिमी गंग वंश की बात की जाए तो इन्होंने चौथी शताब्दी में मैसूर पर शासन किया था.
पश्चिमी गंग वंश पूर्वी गंग वंश से अलग थे. पूर्वी गंग वंश के शासकों ने उड़ीसा पर राज्य किया था, जबकि पश्चिमी गंग वंश का शासन मैसूर राज्य पर था. भारत में इन दोनों राजवंशों को एक ही माना जाता है जबकि यह दोनों एक नहीं होकर दूर के संबंधी थे. पश्चिमी गंग वंश का इतिहास के सम्बन्ध में यह भ्रम नहीं रहना चाहिए कि दोनों शाखाएँ एक ही थी.
पश्चिमी गंग वंश के शासक और लोग ज्यादातर जैन धर्म के मानने वाले थे लेकिन इस राज्य के कुछ लोगों ने हिंदू धर्म को बढ़ावा दिया. इस राज्य की मुख्य भाषा कन्नड़ थी लेकिन संस्कृत का बोलबाला भी था. इस काल में विभिन्न शैक्षणिक गतिविधियों को बढ़ावा मिला, कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मंदिरों का निर्माण हुआ, जंगलों के आसपास और बंजर जमीन को साफ करके कृषि योग्य भूमि तैयार की गई और सिंचाई के साधनों का विकास किया गया.
पश्चिमी गंग वंश का इतिहास बहुत ही गौरवशाली रहा हैं, यह एक समृद्धशाली राज्य था. वहीं दूसरी तरफ सामाजिक दशा की बात की जाए तो इस वंश में अंतर्विवाह का भी प्रचलन था.
पश्चिमी गंग वंश के मुख्य शासक
पश्चिमी गंग वंश के मुख्य शासकों की बात की जाए तो पश्चिमी गंग वंश का प्रथम राजा कोंगानिवर्मन और इस वंश के संस्थापक दिदिग का नाम सबसे पहले लिया जाता हैं. कोंगानिवर्मन का पुत्र और उत्तराधिकारी माधव प्रथम 425 ईस्वी में इस वंश का शासक बना. पश्चिमी गंग वंश के शासक माधव प्रथम को दत्तकसूत्र पर टीका लिखने का श्रेय दिया जाता है.
माधव प्रथम के बाद अय्यवर्मा नामक राजा गंग वंश के अगले शासक हुए जो इतिहास, पुराण और शास्त्रों के बहुत बड़े ज्ञाता थे. साथ ही उन्हें एक महान योद्धा के रूप में याद किया जाता है. अय्यवर्मा और उनके छोटे भाई कृष्णवर्मा के बीच सत्ता प्राप्ति के लिए युद्ध हुआ था. इस युद्ध के परिणाम स्वरूप गंग राज्य का विभाजन हो गया और दोनों भाइयों को शासन के लिए आधा-आधा राज्य मिला. इस युद्ध की खासियत यह थी कि इसमें अय्यवर्मा को पल्लव शासक की सहायता मिली.
अय्यवर्मा और कृष्णवर्मा दोनों के पुत्रों का नाम सिंहवर्मा था.
सिंहवर्मा (अय्यवर्मा का पुत्र) को पल्लव शासक स्कंदवर्मा ने राज्य हासिल करने में मदद की. सिंहवर्मा (अय्यवर्मा का पुत्र) और उनकी पत्नी (कदंब राजा कृष्णवर्मा की बहिन) के एक पुत्र हुआ जिसका नाम अविनित था. अविनित बाल्यकाल में ही गंग वंश का उत्तराधिकारी बन गया.
पश्चिमी गंग वंश के सर्वाधिक वीर शासकों में दुर्विनीति (540-600 ईस्वी) का नाम आता है जिन्होंने पल्लव शासकों को पराजित कर खोए हुए राज्य को पुनः प्राप्त किया था. पुन्नाड और कोंगुदेश को जीतकर चालुक्य शासकों के साथ मित्रता पूर्वक संबंध स्थापित किए. पश्चिमी गंग वंश का इतिहास यह बताता हैं कि यह समय इनके लिए स्वर्णीम था.
इन्हें कला और साहित्य प्रेमी दी माना जाता है. इतना ही नहीं यह संस्कृत के एक महान विद्वान के रूप में भी जाने जाते हैं. राजा दुर्विनीति ने भारवि द्धारा रचित किरातार्जुनीयम नामक ग्रन्थ पर टीका लिखने के साथ साथ पैशाची ग्रन्थ वृहत्कथा का संस्कृत में अनुवाद किया था. इनके बाद श्रीपुरुष ( 728-788 ईस्वी) नामक तेजस्वी राजा हुए, इन्होंने पांड्यों की अधीनता में शासन किया था. इन्होंने राजधानी को बदलकर मान्यपुर रख ली. चित्तलदुर्ग के लोगों ने इनकी अधिनता स्वीकार की.
ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि पश्चिमी गंग वंश के शासक श्रीपुरुष के बाद इस राज्य के पतन का सिलसिला प्रारंभ हो गया था. श्रीपुरुष के बाद इस वंश के अगले शासक शिवकुमार द्वितीय को राष्ट्रकूट शासकों (गोविंद तृतीय और ध्रुव) ने पराजित करके बंदी बना लिया.
शिवकुमार द्वितीय के पश्चात उसका भतीजा राजमल्ल द्वितीय इस वंश का अगला शासक हुआ. अमोघ वर्ष के शासनकाल में गंग वंश के शासक नीतिमार्ग प्रथम (राजमल्ल द्वितीय) ने अपने राज्य को स्वतंत्र बनाए रखा. नीतिमार्ग प्रथम ने राष्ट्रकुटों को पराजित कर दिया जिसके परिणामस्वरुप अमोघ वर्ष प्रथम ने अपनी बेटी चंद्रोंबेलब्बा का विवाह नीतिमार्ग प्रथम के पुत्र बुतुंग प्रथम के साथ कर दिया.
बुतुंग प्रथम और उसके छोटे भाई राजमल द्वितीय ने चालूक्यों को युद्ध में पराजित किया. लेकिन बुतुंग प्रथम की असमय मृत्यु हो गई. इनकी मृत्यु के पश्चात इनका पुत्र नीतिमार्ग द्वितीय राजगद्दी पर बैठा. नीतिमार्ग द्वितीय का शासनकाल बहुत छोटा रहा.
इनके पश्चात् इनका पुत्र राजमल्ल तृतीय राजा बने लेकिन उनके भाई बुतुंग द्वितीय ने इन्हें मौत के घाट उतार दिया. बुतुंग द्वितीय का विवाह राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय की बहन रेवका से हुआ. इन्होंने लगभग 20 वर्षों तक राष्ट्रकुटों के अधीन सामंत के रूप में शासन किया था.
इनकी मृत्यु के पश्चात इनका पुत्र मारसिंह तृतीय इस वंश का शासक बना और इन्होंने भी राष्ट्रकुट शासकों से मैत्रीपूर्ण संबंध कायम रखे. जैन धर्म के अनुयायी इस शासक ने सल्लेखना कर मौत को प्राप्त हुए.
पश्चिमी गंग वंश का पतन
आठवीं शताब्दी के अंतिम दौर में पारिवारिक विवाद के चलते पश्चिमी गंग वंश बहुत कमजोर हो गया इतना ही नहीं चोलाें द्वारा बार-बार आक्रमण करने से गंगवाड़ी (पश्चिमी गंग वंश का शासन क्षेत्र) और उनकी राजधानी तलवाड़ (तलवनपुर) के बीच संबंध टूट गया. इसका नतीजा यह हुआ कि 1004 ईस्वी में गंग वंश का पतन हो गया और यह राज्य चोल वंश के शासक विष्णुवर्धन के अधिकार में चला गया. यहीं से पश्चिमी गंग वंश का इतिहास धूमिल होना प्रारम्भ हो गया.
इसके बाद भी बुतुंग द्वितीय ने कृष्णा और तुम भद्रा नदियों के समीपवर्ती क्षेत्रों पर अपना राज्य सुचारू रूप से चलाता रहा. बुतुंग द्वितीय के बाद राजमल्ल चतुर्थ और उनके भाई रक्कस नामक शासकों ने शासन किया. रक्कस के शासनकाल के दौरान चोल शासक विष्णुवर्धन ने पश्चिमी गंग वंश के शासकों को पराजित करते हुए तलवाड़ (तलवनपुर) पर अधिकार कर लिया.
इस तरह इक्ष्वाकु वंश से अलग होकर पश्चिमी गंग वंश के शासकों ने कई वर्षों तक शासन किया, लेकिन अंततः 1004 ईस्वी में पश्चिमी गंग वंश का पतन हो गया. पश्चिमी गंग वंश के पतन का श्रेय चोल शासक राजराज प्रथम को जाता है. लेकिन पश्चिमी गंग वंश का इतिहास स्मरणीय हैं.
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दोस्तों उम्मीद करते हैं पश्चिमी गंग वंश का इतिहास (Paschimi Gang Vansh History In Hindi) पर आधारित यह लेख आपको अच्छा लगा होगा, धन्यवाद.