वैदिक काल में विवाह प्रणाली और प्रकार

 भारत का वैदिक काल (1500 ईसा पूर्व - 500 ईसा पूर्व) एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक युग था, जिसमें सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाएँ विकसित हुईं। इस काल में विवाह न केवल एक सामाजिक अनुबंध था, बल्कि धार्मिक संस्कार भी माना जाता था। वैदिक साहित्य, विशेष रूप से ऋग्वेद, यजुर्वेद, और गृह्यसूत्रों में विवाह के विस्तृत विवरण मिलते हैं।



वैदिक काल में विवाह की विशेषताएँ

वैदिक काल में विवाह एक पवित्र और सामाजिक संस्कार माना जाता था जिसका सम्बन्ध धर्म, समाज और कुटुंब व्यवस्था से जुड़ा हुआ था। वैदिक काल में विवाह प्रणाली की मुख्य विषेशताएँ निन्मलिखित थी-

[1]. धार्मिक महत्त्व- विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान और पवित्र बंधन था जिसमें केवल एक स्त्री और पुरुष के बिच का सम्बन्ध ही नहीं, बल्कि दोनों कुल (परिवार) का मिलन समझा जाता था.

[2]. विवाह के प्रकार- वैदिक काल में 8 प्रकार के विवाह का उल्लेख मिलता हैं जिनमें 4 को श्रेष्ठ और 4 को अधम माना जाता था.

श्रेष्ठ विवाह- यह चार प्रकार का था-

A. ब्रह्म विवाह- कन्या का योग्य वर को दान।
B. दैव विवाह- यज्ञ के दौरान पुरोहित को कन्या का दान.
C. आर्ष विवाह- वर द्वारा एक जोड़ी गाय देकर विवाह करना।
D. प्राजापत्य विवाह- समानता के आधार पर विवाह।

अधम विवाह- यह भी चार प्रकार का होता था-

A. गांधर्व विवाह- आपसी सहमति से होना वाला प्रेम विवाह।
B. आसुर विवाह- दहेज देकर विवाह करना।
C. राक्षस विवाह- बलपूर्वक या युद्ध में हरण करके विवाह करना।
D. पैशाच विवाह- छल या नशीली वस्तु देकर विवाह करना।

[3]. मोनोगैमी का प्रचलन- प्राचीन वैदिक काल में एक ही पत्नी रखने की परम्परा थी, उत्तर वैदिक काल में राजाओं और कुलीन वर्ग में बहुविवाह की प्रथा देखने को मिलती थी.

[4]. कन्या का महत्व और वर चयन- आमतौर पर कन्या का विवाह करना पिता का धार्मिक कर्तव्य था लेकिन स्वयंवर प्रथा भी थी.

[5]. दहेज़ और स्त्रीधन- कन्या को सम्पति और उपहार दिए जाते थे जिसे स्त्रीधन कहा जाता था, इस पर कन्या का अधिकार होता था.

[6]. पति-पत्नी का सम्बन्ध- दोनों में समानता का भाव होता था. दोनों का धार्मिक और आध्यात्मिक सम्बन्ध होता था।

[7]. विवाह विच्छेद और पुनर्विवाह- वैदिक काल में विवाह अटूट सम्बन्ध था. विधवा पुनर्विवाह की प्रथा थी, खास तौर पर क्षत्रिय वर्ग में.

[8]. संतानोत्पत्ति- विवाह का मुख्य उद्देश्य संतानोत्पति और कुल परंपरा को आगे बढ़ाना होता था. संतानहीनता को सामाजिक रूप से अनुचित माना जाता था और इस स्थिति में नियोग प्रथा का उल्लेख भी मिलता हैं.

वैदिक विवाह की प्रक्रिया-

वैदिक विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान था जिसमें विवाह से पहले यज्ञ और धार्मिक अनुष्ठान किए जाते थे.

वर और कन्या का चयन- विवाह के लिए वर विद्वान्, सक्षम और सदाचारी होता था जबकि कन्या की शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक गुणों का ध्यान रखा जाता था.

विवाह पूर्व अनुष्ठान- इसमें वर खोज और कन्या के पिता द्वारा कन्या वर को सौंपने का कार्य शामिल था.

विवाह संस्कार- इसमें सबसे पहले हस्तगृहण होता था अर्थात वर द्वारा कन्या का हाथ पकड़कर सात जन्मों तक साथ निभाने की प्रतिज्ञा करता था. फिर सप्तपदी अथवा सात फेरों का आयोजन होता था. जिसमें वो जीवनभर साथ निभाने की शपथ लेते थे. कई विद्वानों का मानना हैं की वैदिक काल में मंगलसूत्र और सिंदूर की परम्परा नहीं थी यह बाद में आई जबकि कुछ इसको विवाह का अभिन्न अंग मानते हैं.

यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद वहां पर मौजूद सभी लोग नवविवाहित जोड़े को आशीर्वाद देते थे.

विवाह के बाद के अनुष्ठान- इसमें गृहप्रवेश और गृहस्थजीवन की शुरुआत शामिल होता था.

वैदिक विवाह में स्त्री की स्थिति
वैदिक काल में स्त्रियों को सम्मान प्राप्त था। विवाह में उनकी सहमति महत्वपूर्ण मानी जाती थी, विशेष रूप से गांधर्व विवाह में। स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं और उन्हें धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने का अधिकार था।
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