महादजी शिंदे का इतिहास (History Of Mahadji Shinde)
महादजी शिंदे सिंधिया वंश के संस्थापक राणोंजी राव शिंदे के अंतिम और पांचवें पुत्र होने के, साथ-साथ मराठा साम्राज्य के एक कुशाग्र बुद्धि, सरल, सहिष्णु और धैर्यशीलता के साथ-साथ उदार व्यक्तित्व के शासक थे, जिन्होंने ग्वालियर रियासत पर शासन किया था।
महादजी शिंदे ने 18 जनवरी 1768 से लेकर 12 फ़रवरी 1794 तक शासन किया था। महादजी शिंदे ने पानीपत के तृतीय युद्ध (1761) में भाग लिया था और सिंधिया वंश के संस्थापक राणोंजी राव शिंदे के पुत्रों में से केवल यही ऐसे थे जो इस युद्ध में जीवित बचे।
महादजी शिंदे का इतिहास (History Of Mahadji Shinde)
परिचय बिंदु | परिचय |
पूरा नाम | मेहरबान श्रीमंत सरदार शिंदे बहादुर महादजी शिंदे या महादजी सिंधियां |
जन्म वर्ष | 1730 ईस्वी |
मृत्यु तिथि | 12 फरवरी 1794 |
मृत्यु के समय आयु | 64 वर्ष |
पिता का नाम | राणोंजी राव शिंदे |
माता का नाम | चीमा बाई |
शासन अवधि | 18 जनवरी 1768 से लेकर 12 फरवरी 1794 तक |
साम्राज्य | मराठा साम्राज्य |
धर्म | हिंदू, सनातन |
परिवार | अन्नपूर्णाबाई (पत्नी ), भवानीबाई (पत्नी ), दत्ताजी राव शिंदे (भाई ) |
अहमद शाह अब्दाली और मराठी सेना के बीच पानीपत का तृतीय युद्ध 1761 ईस्वी में लड़ा गया था। यह युद्ध मराठों के लिए बहुत नुकसानदेह साबित हुआ। कई वीर मराठी सरदार इस युद्ध में मारे गए। मराठों का लगातार बढ़ रहा प्रभाव इस युद्ध के बाद थम सा गया।
महादजी शिंदे उन चुनिंदा लोगों में से थे जो पानीपत के तृतीय युद्ध में बच गए। इस युद्ध में इन्होंने अपने भाई भी खो दिए। इस युद्ध के बाद उत्तर भारत में कमजोर पड़ी मराठा शक्ति को पुनर्जीवित करने में महादजी शिंदे ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।
मराठा साम्राज्य के पुनरुत्थान के तीन मुख्य स्तंभों में माधवराव प्रथम और नाना फडणवीस के साथ तीसरा मुख्य नाम महादजी शिंदे का था। अपनी अभूतपूर्व दूरदर्शिता और वीरता के दम पर इनके शासनकाल में ग्वालियर और मराठा साम्राज्य भारत की अग्रणी सैन्य शक्तियों में से एक बन गए।
1771 ईस्वी में शाह आलम द्वितीय के साथ महादजी शिंदे दिल्ली चले गए। वहां पर जाने के पश्चात उन्होंने मुगलों को बहाल कर दिया और वकील उल मुतलक बन गए। अपनी आगे की गतिविधियां जारी रखते हुए महादजी शिंदे मथुरा की ओर गए और वहां पर जाट शक्ति का सफाया कर दिया। इसके साथ ही 1772-73 ईसवी के दौरान उन्होंने रोहिलखंड में पश्तून रोहिलों की शक्ति को खत्म कर दिया।अब नजीबाबाद पर महादजी शिंदे और मराठा सरदारों का कब्जा हो गया।
प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध के दौरान भी महादजी शिंदे की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही, क्योंकि इससे पहले भी उन्होंने अंग्रेजों का सामना किया था जिससे उन्हें उनकी शक्ति और योजना के बारे में पता था। 1782 ईस्वी में सालबाई की संधि में महादजी शिंदे ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसी वर्ष महादजी शिंदे ने तैमूर शाह दुर्रानी को पराजित किया। तैमूर शाह दुर्रानी ने लाहौर पर अपनी शक्ति को बढ़ाने और सिखों को पराजित करने के लिए आक्रमण किया था।
महादजी शिंदे के नेतृत्व में ही मराठी सेना ने अफ़गानों का सामना किया और उन्हें पराजित कर दूर तक खदेड़ दिया। अफ़गानों को पराजित करने के बाद महादजी शिंदे और मराठों ने सोमनाथ मंदिर से चुराए गए तीन चांदी के दरवाजों को लाहौर से पुनः सोमनाथ मंदिर लेकर आए।
सोमनाथ मंदिर जाने के बाद यहां के पुजारियों ने इन तीनों दरवाजों को स्वीकार करने से मना कर दिया। बाद में महादजी शिंदे ने इन दरवाजों को उज्जैन के मंदिर में रखवाया। आज भी इन दरवाजों को महाकालेश्वर मंदिर और उज्जैन के गोपाल मंदिर में देखा जा सकता है। 1787 ईस्वी में महादजी शिंदे के नेतृत्व में मराठी सैनिकों ने राजपूताना पर आक्रमण किया लेकिन राजपूत सेनाओं ने लालसोट से उन्हें पुनः भेज दिया। 1790 ईस्वी में पाटन और मेड़ता की लड़ाई में जोधपुर और जयपुर के राजपूत राजाओं को उन्होंने पराजित किया था।
सालबाई की संधि
17 मई 1782 के दिन यह महत्वपूर्ण संधि हुई थी। यह संधि मराठों और अंग्रेजों के बीच हुए थी। इस संधि में यह प्रस्ताव रखा गया कि सवाई माधवराव को पेशवा बनाया जाए और रघुनाथराव को आजीवन पेंशन के रूप में बड़ी रकम दी जाए।
1782 में हुई इस संधि के बाद राजपूत राज्यों विशेषकर राजस्थान के जोधपुर और जयपुर के साथ-साथ पाटन और मेड़ता पर इन्होंने आक्रमण किया। इतना ही नहीं महादजी शिंदे ने पंजाब और सिख सरदारों पर बी विजय हासिल की।
महादजी शिंदे द्वारा किए गए अन्य महत्वपूर्ण कार्य
1. महादजी शिंदे को नायब वकील उल मुतलक (मुग़ल मामलों के डिप्टी रेजिडेंट) बनाया गया।
2. 1784 इसवी में मुगलों ने उन्हें अमीर उल उमरा (अमीरों के मुखियां) की उपाधि प्रदान की।
3. रोहिल्ला प्रमुख गुलाम कादिर और इस्माइल बैग ने मुगल राजवंश की राजधानी दिल्ली पर आक्रमण कर दिया और मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को अपदस्थ कर दिया। 2 अक्टूबर 1788 को यह खबर सुनकर महादजी शिंदे पुनः दिल्ली आए और अपनी सेना के साथ गुलाम कादिर की हत्या कर दी। साथ ही शाह आलम द्वितीय को पुनः सिंहासन पर बिठाया और उनके रक्षक के रूप में कार्य किया।
4. हैदराबाद के निजाम पर जीत भी महादजी शिंदे की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है।
महादजी शिंदे की मृत्यु
लखेरी की लड़ाई के बाद महादजी शिंदे की हालत नाजुक हो गई। 12 फरवरी 1794 के दिन 64 वर्ष की आयु में पुणे के पास वनवाड़ी में उनके शिविर में उन्होंने अंतिम सांस ली। महादजी शिंदे का कोई वारिस नहीं था, इनकी मृत्यु के पश्चात दौलतराव सिंधिया को इनका उत्तराधिकारी घोषित किया गया।
एक अंग्रेजी बायोग्राफर कीवी ने लिखा कि 18वीं शताब्दी के दौरान दक्षिण एशिया में महादजी शिंदे सबसे महान व्यक्तित्व थे। वह आगे लिखते हैं कि उत्तर भारत में मराठा साम्राज्य की स्थापना करने में महादजी शिंदे की महत्वपूर्ण भूमिका रही। महादजी शिंदे की समाधि पुणे के वनवाड़ी में स्थित हैं। जिसे शिंदे छतरी के नाम से जाना जाता हैं।
जहां पर इनका अंतिम संस्कार किया गया वहां पर एक बहुत ही शानदार राजपूत स्थापत्य शैली में तीन मंजिला स्मारक बना हुआ है।
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