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चोल साम्राज्य या चोल वंश का इतिहास || History Of Chola Empire

चोल साम्राज्य या चोल वंश का इतिहास देखा जाए तो इस समय में भारत सोने की चिड़िया कहलाता था. लेकिन आज चोल वंश का इतिहास बहुत कम लोग जानते हैं. भारत का यह प्राचीन राजवंश दक्षिण भारत और आसपास के अन्य देशों तक फैला हुआ था. इस अत्यंत शक्तिशाली साम्राज्य का शासनकाल 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के मध्य माना जाता है.

विजयालय (850-871 ईस्वी) नामक सम्राट को चोल साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है. इस राजवंश के बारे में महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक जानकारी पाणिनी कृत अष्टाध्यायी से मिलती है, इसके अलावा कात्यायन द्वारा रचित ‘वार्टिक’, संगम साहित्य, पेरिप्लस ऑफ़ द इरीथ्रियन सी और टोलमी के साथ साथ महाभारत जैसे विभिन्न ऐतिहासिक स्त्रोतों से हमें चोल वंश के इतिहास के संबंध में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती हैं.

इस लेख के माध्यम से हम चोल साम्राज्य या चोल वंश का इतिहास बारीकी से जानने की कोशिश करेंगे.

चोल साम्राज्य या चोल वंश का इतिहास (Chola vansh History In Hindi)

चोल साम्राज्य की पहली राजधानी- उत्तरी मनलूर.

चोलों का राजकीय चिन्ह- बाघ.

चोल राज्य के अन्य नाम- किल्ली, नेनई, सोग्बीदास और बलावन.

भाषाएं- तमिल और संस्कृत.

धर्म- हिंदू सनातन.

चोल वंश का प्रथम शासक- विजयालय (850-871 ईस्वी).

चोल वंश का अन्तिम शासक- राजेंद्र तृतीय (1250-1279).

चोल साम्राज्य या चोल वंश का इतिहास स्पष्ट नहीं है. इस वंश के बारे में प्रारंभिक जानकारी 100 ईस्वी से लेकर 250 ईस्वी के बारे में मिलती हैं इस समय यह राजवंश दक्षिण भारत में अपना प्रभुत्व जमा चुका था. इस समय अवधि में करिकाल नामक चोल शासक का नाम दृष्टि पटल पर आता है, जो लगभग 190 ईस्वी के आसपास शासक रहें होंगे.

करिकाल के विषय में ऐतिहासिक जानकारी “संगम साहित्य” से प्राप्त होती है. इस चोल शासक के समय दक्षिण भारत में चेर एवं पाण्डेय वंश भी सत्ता में थे लेकिन इनका ज्यादा वर्चस्व नहीं था. जैसे जैसे समय आगे बढ़ता गया चोलों की शक्ति क्षीण हो गई और यही वजह है कि कई इतिहासकार 9वी शताब्दी के मध्य तक आते आते इनके इतिहास को नगण्य मानते हैं. इसकी मुख्य वजह थी चोलों पर पल्लवों तथा कलभ्रों द्वारा निरंतर आक्रमण.

9 वीं सदी के मध्य से चोलों की शक्ति का पुनरुत्थान हुआ और देखते ही देखते वह दक्षिण भारत की एक महान शक्ति बन गए. धीरे-धीरे इनका साम्राज्य तुंगभद्रा नदी के दक्षिण के सभी भू भागों और अरब सागर के बहुत से दीपों पर फैल गया. यहीं से चोल साम्राज्य के स्वर्णिम इतिहास की शुरुआत हुई. चोल वंश की प्रारंभिक राजधानी “पुहर” थी जो वर्तमान में पुम्पूहर (मयीलाडूतुरै, तमिलनाडु) के नाम से जानी जाती है.

समय के साथ पुहर से बदलकर उरैयुर (आधुनिक वौरेयूर, त्रिचुरापल्ली, तमिलनाडु) को राजधानी बनाया गया. इसके बाद क्रमशः तंजौर (तंजाबुर), गंगेकोण्डचोलपुरम (त्रिचुरापल्ली) चोल राजवंश की राजधानियां बनी. चोल वंश या चोल साम्राज्य का राजकीय चिन्ह बाघ है, जो उनके ध्वज पर भी अंकित है. इसके साथ ही चोल वंश का इतिहास देखा जाए तो उन्होंने तमिल और संस्कृत को राजकीय भाषा के रूप में अपनाया था. इन शासकों के अभिलेख संस्कृत, तमिल और तेलुगू भाषाओं में प्राप्त हुए हैं.

चोल राजवंश के ऐतिहासिक स्त्रोत

किसी भी साम्राज्य के संबंध में उपलब्ध ऐतिहासिक स्त्रोत चोल वंश का इतिहास की प्रमाणिकता को दर्शाते हैं. चोल राजवंश के इतिहास के संबंध में प्राप्त ऐतिहासिक स्त्रोतों में अभिलेख और साहित्य मुख्य हैं जो निम्नलिखित हैं-

अभिलेख

चोल वंश का इतिहास विभिन्न अभिलेखों से प्राप्त होता हैं , जो निम्नलिखित हैं-

1. राजराज प्रथम का तंजौर मन्दिर लेख जो इनकी शासनावधि के सम्बंध में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी प्रदान करता हैं.

2. मणिमंगलम अभिलेख में श्रीलंका पर विजय प्राप्त करने की जानकारी मिलती हैं, या अभिलेख राजाधिराज प्रथम का हैं.

3. मौर्य वंश के सम्राट अशोक महान का दूसरा और सातवां अभिलेख चोल वंश के इतिहास के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है.

4. तिरुवेंदीपुरम नामक अभिलेख जो कि राजराज तृतीय का हैं, इसमें चोल वंश की उत्कर्षता का वर्णन किया गया हैं.

साहित्यिक स्त्रोत

चोल वंश का इतिहास जानने के लिए साहित्यिक स्त्रोतों का बड़ा योगदान हैं.

.1 महावंशम- महावंशम एक बहुत साहित्य है जिसमें चोल शासकों के बारे में लिखा गया है.

2. वीरशेलियम- बौद्ध विद्वान बुद्धिमित्र द्वारा रचित इस ग्रन्थ में “तमिल व्याकरण” का जिक्र है.

3. पेरियपुराणम- विद्वान शेक्किलार द्धारा रचित इस ग्रन्थ में चोल शासक कुलोतुंग II की शासनावधि के बारे में जानकारी प्राप्त होती हैं.

4. जीवन चिंतामणि- जैन विद्वान तिरुत्कदेवर द्वारा रचित इस ग्रन्थ में भी चोल साम्राज्य का इतिहास झलकता हैं.

5. अष्टाध्यायी- इस ग्रंथ की रचना पाणिनि ने की थी इसमें चोल शासकों और साम्राज्य के संबंध में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी मिलती है.

6. वार्तिक (कात्यायन द्वारा रचित), संगम साहित्य, महाभारत, 

पेरिप्लस ऑफ़ द इरीथ्रियन सी और टोलमी आदि स्त्रोत भी चोल साम्राज्य का इतिहास बया करते हैं.

पल्लव वंश का इतिहास।

चोल राजवंश के मुख्य शासक

1. विजयालय (850-871 ईस्वी)

विजयालय चोल वंश का संस्थापक माना जाता हैं. 9वीं शताब्दी में चोल राजवंश की शक्ति का परचम लहराने में विजयालय का मुख्य योगदान रहा.

चोल वंश का इतिहास देखा जाए तो पल्लव शासकों के अधिनस्थ यह एक शक्तिशाली सम्राट थे. इन्होंने पल्लव और पांडयों से युद्ध किया और तंजौर नामक स्थान पर कब्जा कर लिया. इस जीत के बाद विजयालय ने तंजौर को अपनी राजधानी बनाया, पहले इनकी राजधानी उरैपुर थी. विजयालय ने नरकेसरी की उपाधि धारण की थी. इतना ही नहीं इन्होंने “निशम्भसुदिनी” देवी के भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था.

2. आदित्य प्रथम (871-907 ईस्वी)

चोल वंश के संस्थापक विजयालय की मृत्यु के बाद उसका पुत्र आदित्य, चोल वंश के द्वितीय शासक बने. आदित्य प्रथम के शासनकाल के दौरान पांडयो और पल्लव शासकों के बीच निरंतर युद्ध चल रहे थे, ऐसे में आदित्य प्रथम ने पल्लव शासक अपराजित वर्मन की मदद की.

लगभग 893 ईसवी के आसपास आदित्य ने पल्लव शासक अपराजित वर्मन को मौत के घाट उतार दिया और संपूर्ण तोंडमंडल पर अपना अधिकार करते हुए चोल वंश के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की. पल्लवाें का बचा हुआ राज्य अपने अधिकार क्षेत्र में लेने के बाद उन्होंने पश्चिमी गंगों को भी पराजित करते हुए अपने अधीन कर लिया. 

आदित्य प्रथम को चोल वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है, यह चोल वंश के प्रथम स्वतंत्र राजा थे क्योंकि इनके पिता विजयालय पल्लव राजाओं के सामंत थे. इन्होंने कोदण्डराम की उपाधि धारण की थी. इन्होंने अपनी राजधानी तंजौर में अनेक शिव मंदिरों का निर्माण कराया था. चोल वंश का इतिहास में आदित्य प्रथम का नाम बहुत महत्वपूर्ण हैं.

3. परान्तक प्रथम (907-953 ईस्वी)

परान्तक प्रथम आदित्य प्रथम के पुत्र तथा चोल वंश के उत्तराधिकारी थे. इन्होंने पांड्या शासक राजसिंह को पराजित करके उनके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया. इन्होंने बाणों और वैदूंबों को भी पराजित किया तथा राष्ट्रकूट शासक कृष्णा तृतीय को हराकर पैनर नदी के दक्षिणी भूभाग पर कब्जा कर लिया. तंजौर में स्थित चिदंबरम मंदिर का निर्माण परान्तक प्रथम के द्वारा करवाया गया था और नटराज की प्रतिमा के ऊपर सोने की छत का निर्माण भी इसी समय हुआ था. इन्होंने तजेयकोंड की उपाधि धारण की.

राष्ट्रकूट शासकों से यह हार देखी नहीं गई. बदले की भावना उनके मन में थी और यही वजह रही कि राष्ट्रकूट शासक कृष्णा तृतीय ने गंग शासकों के साथ मिलकर चोल साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया. 949 ईस्वी को लड़े गए इस युद्ध में चोल सेना की हार हुई और उनका युवराज राजदित्य इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ.

चोल वंश का इतिहास देखें तो यह उनके लिए यह एक बहुत बड़ी हार थी. इसी युद्ध ने चोलों के राज्य के साथ-साथ उनकी शक्ति को भी क्षीण कर दिया. इसका प्रभाव यह हुआ कि आगामी 32 वर्षों तक चोल शासक दक्षिण की राजनीति से गायब हो गए. परान्तक प्रथम के बाद सुन्दर चोल या परान्तक द्वितीय ने तो तोण्डमण्डल पर पुनः अधिकार कर लिया.

4. राजराज प्रथम महान अथवा अरमोलिवर्मन (985-1014 ईस्वी)

चोल वंश का सबसे प्रतापी राजा राजराज प्रथम (अरमोलिवर्मन) था राजराज एक उपाधि थी जबकि इनका असली नाम अरमोलिवर्मन था. 985 ईसवी में सिंहासन पर बैठने से पूर्व इन्हें सैन्य संचालन तथा शासन कार्य का अनुभव था. शैव- धर्मावलंबी राजराज प्रथम ने “शिवपाद शेखर” की उपाधि धारण की. इन्हें ऐसे ही महान नहीं कहा जाता है इन्होंने चोलों की शक्ति और प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया था.

दक्षिण क्षेत्र में अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा और राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए इन्होंने पश्चिमी गंगो, वेंगी के पूर्वी चालूक्यों, मदुरा के पांड्यो, कलिंग के गंगों और केरल के चेरों को परास्त किया.

इन्होंने विशाल नौसेना का निर्माण कर श्रीलंका और उसके समीपस्थ द्वीपों को अपने अधिकार में ले लिया. चोल साम्राज्य में यह पहले ऐसे राजा थे जिन्होंने अपने राज्य की सीमाओं को दक्षिण भारत से लेकर श्रीलंका तक फैला दिया और यही वजह थी कि राजराज प्रथम को चोल वंश का सबसे प्रतापी शासक माना जाता है

राजराज प्रथम ने वेंगी में उनके समर्थक विमलादित्य को सिंहासन पर बिठाया और अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ कर दिया. राज राज एक महान विजेता ही नहीं बल्कि एक योग्य शासक-प्रबंधक और निर्माता भी थे, जिन्होंने पूरी तरह से अपने साम्राज्य को खो चुके चोलों का पुनरुत्थान किया और एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया.

यही वजह हैं कि चोल वंश का सबसे प्रतापी राजा राजराज प्रथम को माना जाता हैं. तमिल वास्तुकला का अद्वितीय नमूना राजराजेश्वर शिव मंदिर का निर्माण इन्होंने ही करवाया. धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु माने जाने वाले राजा राजराज ने बौद्ध मठों एवं विहारों को भी संरक्षण दिया.

5. राजेंद्र प्रथम (1014-1044 ईस्वी)

राजराज प्रथम के बाद उनका पुत्र राजेंद्र प्रथम, चोल साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना और अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए साम्राज्य विस्तार पर ध्यान दिया परिणामस्वरूप चोल राजवंश की शक्ति चरमसीमा तक पहुंच गई. उन्होंने ना सिर्फ पांडेय और चेर राज्यों को जीता बल्कि श्रीलंका को भी अपने राज्य में शामिल कर लिया. अपने पिता से विरासत में मिले साम्राज्य को इन्होंने कई गुना बढ़ा दिया.

राजेंद्र चोल प्रथम को चोल वंश का महान और शक्तिशाली और चोल साम्राज्य का सबसे प्रसिद्ध शासक माना जाता है. इन्होंने अरब सागर में नौसेना की श्रेष्ठता को स्थापित किया. राजधानी तंजोर को बदल कर इन्होंने गंगेईकोंडचोलपुरम को अपनी राजधानी बनाकर यहां पर कई मंदिरों का निर्माण करवाया.

इतना ही नहीं महान चोल शासक राजेंद्र प्रथम ने कई उपाधियां धारण की जिनमें गंगेईकोंडचोल, कडर कोंड, पण्डित चोल, वीर राजेंद्र, मुंडीगोंड चोल और परकेशरी वर्मन मुख्य है. इनके गुरु का नाम “संत ईशानशिव” था. इन्होंने अपने शासनकाल में ही पुत्र राजाधिराज को युवराज पद पर अभिषेक कर संभावित उत्तराधिकारी घोषित कर दिया.

6. राजाधिराज (1044-1052)

राजाधिराज चोल वंश के महान और शक्तिशाली शासक राजेंद्र प्रथम के पुत्र थे जो उनके पश्चात इस वंश के राजा बने. इनका शासनकाल पांड्या और श्रीलंका के विद्रोह को दबाने में बीता.

1052 ईस्वी में राजाधिराज और कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ. इस युद्ध में इन्होंने कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर को पराजित कर दिया लेकिन राजाधिराज भी वीरगति को प्राप्त हुए. इन्होंने विजयराजेंद्र की उपाधि धारण की.

7. राजेंद्र द्वितीय (1052- 1064) ईस्वी

राजेंद्र द्वितीय राजाधिराज प्रथम के भाई थे, जो उनकी मृत्यु के पश्चात चोल वंश की गद्दी पर बैठे. कोल्हापुर स्थित जयस्तंभ का निर्माण इन्होंने ही करवाया था, साथ ही उन्होंने प्रकेशरी की उपाधि धारण की. पश्चिमी चालूक्यों और श्रीलंका के राजाओं से इन्होंने युद्ध किया और अपने साम्राज्य की सुरक्षा की.

8. वीर राजेंद्र (1064-1070)

इनके बाद वीर राजेंद्र (1064-1070) ने श्रीलंका और शैलेंद्र साम्राज्य पर अपने आधिपत्य को बचाए रखा. साथ ही चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम और सोमेश्वर वित्तीय को युद्ध में पराजित करने में सफलता प्राप्त की.

इन्होंने राजकेसरी की उपाधि धारण की. वीर राजेंद्र ने उनकी पुत्री का विवाह चालुक्य शासक के साथ किया. वीर राजेंद्र के बाद अधिराजेंद्र, चोल वंश की गद्दी पर बैठे लेकिन ज्यादा सफल नहीं हुए.

9. कुलोत्तुंग प्रथम (1070- 1120)

अधिराजेंद्र के बाद चोल वंश को उनके बहनोई कुलोत्तुंग प्रथम ने संभाला. इन्होंने अपनी पुत्री का विवाह श्रीलंका के राजकुमार के साथ किया था. कुलोत्तुंग प्रथम ने शुंगमततर्तीत नामक उपाधि धारण की.

इनके बिना इस वंश में कई राजा हुए लेकिन कोई भी अपनी छाप नहीं छोड़ पाया जिनमें विक्रम चोल (1120-1133), कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराजा द्वितीय (1150-1173), राजाधिराज द्वितीय (1173-1182) , कुलोत्तुंग तृतीय (1182-1216), और राजाधीराज तृतीय (1216-1250) आदि.

10. राजेंद्र तृतीय (1250-1279)

राज राज तृतीय के बाद 1246 ईस्वी में राजेंद्र तृतीय चोल वंश की गद्दी पर बैठा. इन्होंने पांड्य राज्य को जीता और होयसल एवं काकातीय राज्यों को जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया. राजेंद्र तृतीय को चोल वंश का अंतिम शासक माना जाता है.

चोल वंश के अंतिम शासक राजेंद्र तृतीय को पराजित करके पंड्या शासक ने संपूर्ण चोल साम्राज्य पर अधिकार कर लिया. चोल वंश के अंतिम शासक राजेंद्र तृतीय की हार के साथ ही चोल साम्राज्य समाप्त हो गया.

चोल साम्राज्य का अंत कैसे हुआ?

चोल साम्राज्य के अंत की कहानी बड़ी ही दुःखद हैं. इस विशाल और महान साम्राज्य का अंतिम शासक राजेंद्र तृतीय था. 1250 ईस्वी में काकातीय शासक गणपति ने आक्रमण कर काँची पर अधिकार कर लिया. सुंदरपंड्या ने भी होयसल राजा की मदद लेकर चोल साम्राज्य पर धावा बोल दिया,जिसका परिणाम यह हुआ कि चोल वंश के अंतिम शासक राजेंद्र तृतीय को अधीनता स्वीकार करनी पड़ी.

पांड्या वंश के अधीनस्थ 1279 ईस्वी तक राजेंद्र तृतीय ने सामंत के रूप में काम किया। कमजोर पड़ चुके चोल साम्राज्य का पुनः उत्थान करने वाला कोई योग्य शासक बाद में पैदा नहीं हुआ, परिणामस्वरूप एक विशाल चोल साम्राज्य का अंत हो गया.

चोलकालीन प्रशासन सभ्यता और संस्कृति

1. केंद्रीय और प्रांतीय शासन व्यवस्था

केंद्रीय शासन का प्रधान सम्राट पहला तथा तथा वह सम्मानित उपाधियां धारण करता था. इस वंश के शासक सार्वजनिक हित के कार्य और जनता की भलाई को अपना कर्तव्य समझते थे. चोल साम्राज्य में राजा का पद पैतृक होता था, सबसे बड़ा पुत्र ही युवराज चुना जाता था. इस काल में प्रशासकीय कार्यों को करने वाले अधिकारी को औले के नाम से जाना जाता था.

उत्तराधिकारी के लिए बेहतर व्यवस्था होने के चलते इस वंश में उत्तराधिकारी के लिए तभी ही युद्ध नहीं हुए. यदि युवराज किसी कारणवश अयोग्य होता तो उसके छोटे भाई या अन्य को सर्वसम्मति से राजा चुन लिया जाता था. चाहे धार्मिक अनुष्ठान हो, न्यायपालिका हो या कार्यपालिका सभी का मुखिया राजा ही होता था. राजा की सहायता के लिए कई मंत्री और अधिकारी होते थे. इन अधिकारियों को सम्मानित करने के लिए उपाधियां और जागीरें दी जाती थी.

कई अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चोल सेना में 70 रेजीमेंट थे. उनकी सेना में 60000 हाथी और 1.50 लाख सैनिक थे साथ ही अरबी घोड़े भी उनकी सेना में शामिल थे. इस वंश के राजाओं की आय का मुख्य साधन लगान अथवा भू-कर होता था जो पैदावार का आधा वसूला जाता था.

प्रशासनिक दृष्टि से संपूर्ण राज्यों को कई प्रांतों में बांट रखा था, प्रशासन राजकुमारों के हाथ में रहता था. मंडल को कोट्टम में बांटा गया था ,कोट्टम को नाडुओ में, नाडुओ को कुर्रम में. ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होती थी. राजराज प्रथम के शासनकाल के दौरान मंडलों की संख्या 8-9 थी.

2. चोल साम्राज्य का स्थानीय स्वशासन

प्रशासनिक दृष्टि से चोल शासन में गांव से लेकर मंडल तक स्वशासन की व्यवस्था की गई थी ताकि प्रशासनिक कार्यों को सुगमता और व्यवस्थित तरीके से किया जा सके. नाडु की स्थानीय सभा को नाटुर तथा नगर की सभा को नगस्तार नाम से जाना जाता था. इस प्रकार व्यापारिक वर्ग के लोगों की सभाओं को श्रेणी या पूग नाम से पुकारा जाता था.

चोल साम्राज्य में गांवों को 30 वर्गों में बांटा जाता था, जिस व्यक्ति की आयु 30 वर्ष से लेकर 70 वर्ष की आयु के बीच में होती और जिसके पास डेढ़ एकड़ जमीन होती वह वार्ड का मुखिया चुना जाता था. इसके साथ ही वार्ड अध्यक्ष चुने जाने के लिए एक वेद और भाषा का ज्ञान होना भी जरूरी था. साथ ही उसने कभी कोई अपराध नहीं किया हो.

3. चोल साम्राज्य की सामाजिक दशा

चोल शासनकाल में समाज कई जातियों में बटा हुआ था. स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी उन्हें सम्मान की नजर से देखा जाता था. उन पर कोई विशेष सामाजिक बन्धन नहीं था लेकिन फिर भी उस समय लज्जा को स्त्री का विशेष गुण माना जाता था.

पर्दा प्रथा की व्यवस्था नहीं थी, सामाजिक और धार्मिक कार्यों में स्त्रियां बढ़ चढ़कर भाग लेती थी. साधारण व्यक्ति एक पत्नी रखता था लेकिन जो धनवान होते या सामंत होते या सम्राट होते वह बहु विवाह भी करते थे. दास प्रथा का भी प्रचलन था, साथ ही नगर में गणिकाएँ भी होती थी.

4. चोलकालीन आर्थिक दशा

चोल कालीन समय में राज्य और प्रजा संपन्न थे. पूरी अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी हालांकि व्यापार भी उन्नत स्थिति में था. कृषि कार्यों के लिए उचित सिंचाई के साधनों की व्यवस्था तथा चौड़ी सड़कें और जलमार्ग के चलते विदेशी व्यापार भी होता था.

5. चोल शासन के समय आय के साधन

जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा चोल शासन की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी साथ ही आय का मुख्य साधन भूमि कर था. कर वसूलने वाले अधिकारी को वारित्पोवाकक कहा जाता था. जो व्यक्ति कर का भुगतान नहीं करता उसकी भूमि नीलाम कर दी जाती थी.

6. धार्मिक दशा

सभी चोल शासक हिंदू थे लेकिन राजाओं के साथ-साथ प्रजा भी धार्मिक सहिष्णुता में विश्वास करती थी. इस समय ज्यादातर लोग हिंदू, शैव और वैष्णव धर्म के समर्थक थे. इस काल में मंदिरों का निर्माण बहुत ही गति के साथ हुआ. धर्म, शिक्षा, कला और जन सेवा के मुख्य केंद्रों के रूप में मंदिर प्रसिद्ध थे और यही वजह थी कि इस दौरान चोल शासकों ने कई मंदिरों का निर्माण करवाया

7. चोल कालीन साहित्य

साहित्यिक दृष्टि से चोल साम्राज्य का शासन काल तमिल साहित्य के लिए स्वर्ण काल साबित हुआ. इस दौरान कई धार्मिक ग्रंथों एवं काव्य ग्रंथों की रचना हुई जिनमें जैन विद्वान् तिरुत्कदेवर द्धारा लिखित चिंतामणि, तोलामोक्ति द्धारा रचित शूलमणि, बौद्ध विद्वान बुद्धामित्र द्धारा रचित रसोलियम आदि शामिल हैं.

8. चोल कालीन कलाएं

चोल शासक कला प्रेमी थे उन्होंने कई नगर, झीलें, बांध और तालाब बनवाएं. विजयालय चोलेश्वर मन्दिर, नागेश्वर मन्दिर और कोरंगनाथ मन्दिर चोल कला के अद्भुत नमूने माने जाते हैं.

तंजौर का राजराजेश्वर का मंदिर 150 मीटर लंबा और 75 मीटर चौड़ा हैं. इसमें 14 मंजिलें हैं जो 57 मीटर ऊंची है. इसके सिर्फ पर 7.50 मीटर ऊंचा गुंबद हैं, जिसका वजन लगभग 80 टन है. यह एक ही चट्टान को काटकर बनाया गया है साथ ही इस मंदिर में विभिन्न प्रकार की मूर्तियां स्थापित की गई है. चोल काल में स्थापत्य कला की जो शैली अपनाई गई उसे “द्रविड़ शैली” के नाम से जाना जाता है.

इस मंदिर के बारे में पर्सी ब्राउन ने लिखा “यह संपूर्ण भारतीय वास्तुकला की अनुपम कसौटी है.

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